कलिका | Kalika

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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« शघ्वासी थे # १७ #७ हक तट एक पत्थरपरं पेटसे पैर 'नचिपकाकर बंद सोया हुआ था! :* -उनंतकालका प्रवासी था वह । सुबहकी ठंडी दवासे अंग सिहरते ही वह उठा । रात-भर यात्रा करनेका निश्चय करके भी मुझे बीचहीमें नींद कैसे आ गयी, इसका उसे आश्वय हुआ | बह झट-से उठा और -- वह शिथिलतासे धीरे धीरे चने लगा । उसके नंगे पैर काले-से हुए रक्‍्तसे भर गये थे । वलते हुए केंकड़ छगते, तो उसके पैरोंका एक एक कण विलक्षण वेदनासे विव्हछ हो जाता था । ऊबकर वह एक दिलापर बैठ गया । उसने सहज-भावसे पीछे मसुड़कर देखा । भाग कितना सुंदर दीख रहा था । कुद्दरेमें दीखनेवाले बृक्षोंकी हंस रही 'चोटियी- मंकि ऑचलकी औओरसे देखनेवाले बालककी तरह लगीं वे उसे ! उसने आगे देखा। कुद्दरेके उसपार कुछ भी नहीं दीख रहा था। इस कर्पनासे कि अज्ञानका भयेकर सागर मेरे सामने फैला हुआ है, वह 'चकरा गया । स इरादेसे कि जहाँसे आया था, वहीं लौट जाऊँ, उसने अपना मुह भी घुमा लिया इसी समय एकदम धूप निकली । कुक्रा जत्दी जट्दी साफ़ दोने गा । उसे लगा । कोई मेरी अखोंपर लगी पट्टीको खोल रहा है।




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