कलिका | Kalika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
25 MB
कुल पष्ठ :
307
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)«
शघ्वासी
थे # १७ #७ हक तट
एक पत्थरपरं पेटसे पैर 'नचिपकाकर बंद सोया हुआ था!
:* -उनंतकालका प्रवासी था वह ।
सुबहकी ठंडी दवासे अंग सिहरते ही वह उठा । रात-भर यात्रा करनेका निश्चय
करके भी मुझे बीचहीमें नींद कैसे आ गयी, इसका उसे आश्वय हुआ |
बह झट-से उठा और --
वह शिथिलतासे धीरे धीरे चने लगा । उसके नंगे पैर काले-से हुए रक््तसे
भर गये थे । वलते हुए केंकड़ छगते, तो उसके पैरोंका एक एक कण विलक्षण
वेदनासे विव्हछ हो जाता था ।
ऊबकर वह एक दिलापर बैठ गया । उसने सहज-भावसे पीछे मसुड़कर देखा ।
भाग कितना सुंदर दीख रहा था । कुद्दरेमें दीखनेवाले बृक्षोंकी हंस रही
'चोटियी- मंकि ऑचलकी औओरसे देखनेवाले बालककी तरह लगीं वे उसे !
उसने आगे देखा। कुद्दरेके उसपार कुछ भी नहीं दीख रहा था। इस
कर्पनासे कि अज्ञानका भयेकर सागर मेरे सामने फैला हुआ है, वह 'चकरा गया ।
स इरादेसे कि जहाँसे आया था, वहीं लौट जाऊँ, उसने अपना मुह भी
घुमा लिया
इसी समय एकदम धूप निकली । कुक्रा जत्दी जट्दी साफ़ दोने गा । उसे
लगा । कोई मेरी अखोंपर लगी पट्टीको खोल रहा है।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...