दिनकर के काव्य | Dinkar Ke Kavya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पे भूमि ७ लेबुल 'चटकीला होना न्वाहिए; । झनुकरण के लिए: भी झनुकर्ता में विवेक होना चाहिए, उस समय के प्रमुख कहें जानेवाले कवियों ने अंग्रेजी, बंगला श्ौर संस्कृत साहित्य से जो ग्रहण किया, उसमें हिन्दी के दुर्भाग्य से उनके गुण कम ही श्रा सके | श्रभिव्यक्षना-पद्धति भी श्पनी न होकर झनजबी हो गई | कला के लिए; न्य्कीलापन * अवश्य लाया गया, पर उपयोगिता-शूश्य । कथि पत्त ने तो इसी श्रावेश में श्रपने यहाँ के समग्र प्राव्वीन हिन्दी साहित्य को बुरा-मल्ा भी कह डाला । सम्तुलित विवेक के श्रभाव में न तो श्रात्म-दूपरण की त्रोर ध्यान जा सका श्रौर न श्रतीत साहित्य के गुणों की श्रोर । इसीलिए, कविता की प्रतिमाएँ तो उन्होंने बड़ी सावधानी से सनोमोहिनीं बनाने का प्रयत्न किया किन्तु उनमे से बहुतों में प्राण-प्रतिष्ठा नहीं हो सकी । इनके स्वभाव में एक ख़ास बात श्रारम्भ से ही रही है श्रौर झाज तक है, वह यह कि किसी भी प्रभविष्णु साहित्य को पढ़कर ये तन्मय हो जाते हैं, श्रपनी प्रथकू सत्ता का शान इन्हें नहीं रहता, यह स्थिति तब तक ज्यों-की-त्यों बनी रहती है, जब तक कीई दूसरा प्रभावशाली साहित्य इन्हें पढ़ने को न सिले । यह क्षणिकता ब्ात्म-बीध के श्रभाव के कारण रहती है। श्रीमदादेवी वर्मा श्रपने लोकिक प्रेम को श्रलौकिकता का जामा पहनकर ' शान्ति-लाभ करती रहीं । श्रीजयशड्कूर 'प्रसाद” ने श्रपने लौकिक प्रेस को कुद्देलिका में छिपाने का विशेष यरन नहीं किया, उनकी कविता में प्रिया का पूरा स्वरूप झालझ्ारिक शेली में झड्छित किया गया है, उदाहरण के लिए; श्थाँद? को देख होना पर्याप्त होगा । इसके श्रतिरिक्त उनके नाटकों के गीतों से लेकर कामायनी तक में लोक-पच्चु की ही प्रतिप्ठा हुई है । कामायनी में तो उन्होंने मानव-जीवन को सुखमय बनाने के लिए; इच्छा, शान श्रौर क्रिया या कम का समन्वय दिखाकर दुःख- जजर श्रशान्त जगत का निदान किया है; श्रद्धा और इड़ा के समान योग से मानवता के विकास की कल्पना की है, किन्तु उनकी पहले को क्रचिताश्ों में बुद्धि के योग का प्रायः श्रभाव रहा है। रूपसी की ए.फ़ मीठी ताम सुने बिना उनके नाटकों के नायक युद्ध के लिए एक पग भी श्रागे बढ़ने को. प्रस्तुत नहीं होते थे । 'प्रसाद” की दृष्टि श्रतीत से हटकर वतमान पर कभी भी जमी नहीं | उस युग में पं० सूर्यकान्त निपाठी “निराला” ही एक ऐसे व्यक्ति थे, जिनका बिवेक कभी भी डिगा नहीं । उन्होंने न तो अतीत का तिरस्कार किया श्रौर न ही वतमान से श्राँख घुराई; न समूह का त्याग किया श्रीर न व्यक्ति की उपेक्ता । ने राम की शक्तिपूजा”, 'दिल्ली*, महाराज शिवाजी का पत्र जैसी कविताओं में जहाँ श्रत्तीत के गौरवशाली न्विन्र उपस्थित करते हैं, वहीं उनकी दृष्टि श्ाज




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