श्रीहंसावतार चरित | Srihansawataarcharit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्छ वेष्णवस्वस्व । में स्थित रहते हैं और सम्पूर्ण प्राणियों को निज शक्ति ( स्वीया माया ) से (उन-उन जीवों के) अनादिबीज-भूत कार्यों के अनुसार रुभाशुभ कर्मों में नियुक्त करते हुए प्रकृति के विकार-स्वरूप देह और इन्द्ियों में आरोपित कर उस प्रकार नचाया करते हैं, जैसे घागे से बंधी हुई * कठपुतछी * को अपनी इच्छा के अनुसार नट नचाया करता है ।” (१) इत्यादि श्रुति-स्सति-प्रतिपादित समस्त चेतन और अचेतन वस्तु के आत्मा, तथा सम्पूण चेतन और अचेतन वस्तु के उत्पत्ति, लय और जीवन के हेतु, एवं सबके नियन्ता और सर्वव्यापक होने से सर्वसामानाधिकरण्य के योग्य भगवान्‌ ही हैं, ऐसा ( भगवान्‌ ) सोचकर सनकादिकों के प्रश्न के उत्तर देने के लिये उन ( सनका- दिकों) के उक्त प्रश्न का खण्डन करते हुए, उन्हें परमात्मतत्त्व-ज्ञान के उपदेश देने एवं उनको निज्ञ शिप्यरूप से समस्त विश्व में असिदध करने के लिए उनके प्रश्न को चेतनाचेतन,--इन दोनों वस्तुओं के पक्ष में लगाकर उस प्रश्न की असम्मवता (दो श्ठो कों से) दिखाते हैं,- * हे ब्राह्मणों ! तुम्हारा आत्मसम्बधी ऐसा, अर्थात्‌ बहुतों के मध्य में एक को निर्धारित करने वाठा--“को भवानु,--अ्थात्‌ आप कौन हैं १?”--यह प्रश्न कैसे सम्भव हो सकता है? अथांत्‌ असम्भव होने से यह प्रश्न अयुक्त है । तुम्हारा प्रश्न चेतन-( आत्मा $ विषयक है? कि वा प्रकृति के कार्यभूत ( विकार ) देव, पशु, मजुष्यादिदेदह के विषय में है? यदि यह प्रश्न चेतन-विषयक हो, तो चेतनवस्तु सदा एकरस, ज्ञानस्वरूप, अधिकारी ण्वं जातिमान्‌ होने से एक है, अतः तुम्हारा--''को भवान”--यह प्रश्न कैसे संगत होसकता है ? अर्थात्‌ तुमने यदि “वस्तु” पक ही (१) ईश्वर: सचभूतानां हृद रो5जुन ! तिष्ठति । स्रामयन्‌ सवभूतानि यन्त्रारूडानि मायया । ( इत्याया: स्सूतयः )




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