मासिक पत्रिका २ | Maasik Patrika 2

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Maasik Patrika 2 by दुलारेलाल भार्गव - Dularelal Bhargav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घ सुधा दि सयसवामाामाकवन पद दस पी लिन १ पलपल फनी व रहे हैं । भला तुम्हीं बताओ, यदद घोती, जो पहने बैठी है, सैली है ?'” सिश्रजी दबी ज़बान से बोले--' 'ैली तो ज़रूर है ,” पार्चतीदेवी चिबुक पर उँगली रखकर बोलीं-* “तब तो हो चुका । जब तुम भी मैली कहने लगे, तो उसके दिमाग़ केसे ठिकाने रह सकते हैं । मुझे क्या करना है, तुम उसके लिये बनारसी साड़ी संग आं, जिसे इर समय पहले बैठी रहा करें । घर-गिरिस्ती में सेना-कचैला भी पहनना पढ़ता है । फिर जदान-जहान है और कूँश्रारी है, सिंगार किए फिरेगी, तो लोग क्या कहेंगे ? मैं तो पूँक'ुँककर पैर घरती हूँ कि लोग यह नकहें कि सौतेखी मा है, इससे लड़की की कोई देख-भाज नहीं होती, मनमानी करती रहती है ।” सिध्नही नख्र होकर बोले-- तो क्या बस 'घोती दीकी बात है ?”” “सौर नहीं तो मैंने कौन बड़ा पाप किया है £ सुकपे बोली--'संदूक से धोती निकाल दो ।' मैंने कहा--'झभी तो यह 'घोती ऐसी कुछ बुरी नहीं है, ऐसा दी है, तो कज्ञ बदल सेना ।' बोली--'नहीं; में तो यह घोती एक छिन भी नहीं पहनूंगी ।” यह बात सुझे बुरी लगी । किसी समय चीज है किसी समय नहीं ; इसमें जिद करने की कौनन्सी बात थी £ मेरे मुँह से निकल गया कि आज तो मैं नहीं निकार्लूगी, बस इतनो-सी बात है। इस पर दो घंटे से बेढी झाँसू बहा रही है । घर में ऐसे दो-्चार बल्चे हों, तो कैसे नि्मे ? अब तुम झ्ाए हो, जेसा समक पढ़े, करो । मैं तो इस लड़की से हार गई ।”' सिश्नजी की समझ में भी पत्नी की बात झा राई । ““दोती नहीं दी, तो कौन बढ़ा भारी गुनाह किया £ पक दिन सैंज्नी ही पदन लेती । और, कुँआारी लड़की को तो मेली-कुचैली दी रहना चाहिए ।” यह सोचते हुए बाहर झाए, श्औौर रेवती को एक ज़ोर को डॉट बताते हुए बोले-' एक दिन मैली दी पहन लेगी, तो क्या घिप् लायगी, बढ़ी रईसज्ञादी बनी है ।”” पिता की ढाँट के सामने रेवती अधिक न ठहर सकी, बी बी भा नही लि १ पं नीच लत भर नच्न्टी भन्य बिन कीं लीं फनी चना [ वष दे, खंड र, संख्या ? न्भ.मी चिप थी पारी मेक चुपचाप उठकर झपनी दादी के कमरे में चली गई । समिधजी बड़बड़ाते हुए शपने कमरे में लो थाए । उसी समय दूसरे कमरे से माता का चौण स्वर सुनाई पढ़ा- उन्हें पुकार रही थीं । पावतीदेवी बोलीं -- ः 'ञाझ्नो, बुला रही हैं । मुक्से खाद खुकी हैं, अब तुम्हारी बारी है ।” मिश्री यदद कहते हुए “इन्होंने तो उसे बिगाड़ ही रक्खा है ।” माता के पास राए । (२) माता के कमरे में पहुँचे, तो. देखा कि रेवती दादी की चारपाई से सिड़ी हुई बैठी सिसकियाँ ले रही दे । मिश्नजी की माता सिश्रजी के झाने की आाइट पाकर उछ बैठीं और बोलीं--''वाह बेटा ! तुमने भला न्याय किया । उस छुत्तीसी को तो कुछ कहा नहीं, उल्ादटे इसी को ढाँटा !” मिश्रजी बोले--“'तो ऐसी कौन बढ़ी मैक्ी घोती है । तुम्हें कुछ सूक तो पढ़ता नहीं, तुम नाइक दज़ल देती हो ।”' “प्सेरे आाँखें नहीं हैं, नाक तो हे-- कि नाक को भी आग लग गई ? जरा नाक लगा के देखो तो, केसी बदबू झा रही हैं । भरे, ऐसी 'घोती तो गरीब-सेशरीब भी नहीं एन. सकता । और न कुछ होगा, तो पैसे का साइन लगाकर थो लेगा ।”' ''घर-यूहस्थी में सब चलता है ।” सिश्रजी ने अंतः- करण से विद्रोह करके कहा । मे '“़ूब पढ़ रदे दो बेटा, जैसा मालकिन ने पढ़ाया हैं, वैसा दी पढ़ रहे हो । घर-गिरिस्ती में सब चखता है, तो वह भी एक दिन ऐसी ही पहनकर देखे । अपना तो झआाठों पदर पतुरिया की तरह सजी रहती है--दिन-भर में चार-चार घोती बदलती है, 'और दूसरों को घर-गिरिस्ती सिखाती है । वाद भ् वाद ! इस घर-गिरिस्त थोड़े दी रहे हैं--यह हमें घर-गिरिस्ती सिखाने आई है । कया कहूँ, भाँखों से ज्ञाचार हूँ, नहीं तो बताती कि घर-गिरिस्ती कैसी होती है ।”” _ “तुम तो अम्मा, स़ासय़ाँ बात का बतंगढ़ बनाती




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