प्राचीन साहित्य | Praachiin Saahity
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
111
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्० प्राचीन साधंदेत्य
जो जाति खण्ड-सत्यका प्रघानता देसी है, जो लोग वास्तविक
सत्यका अनुसरण करनेमें छान्तिका अनुभव नहीं करते, जो काव्यकों
प्रकृतिका दर्पण मात्र समझते हैं, वे संसारमें समयके उपयोगी अनेक
काय्ये करते हैं । वे विशेष घन्यवादके भाजन हैं; मानव-जाति उनके
निकट ऋणी हे. । दूसरी ओर, जिन ठोगेंनि यह कहा हे कि “भूमेव सुख
भूमात्वेव विजिज्ञासितव्य: ”” ( पूर्णता ही सुख हे, उसीको जाननेका
प्रयत्न करना चाहिए ) और परिपूणे परिणाम ही. समस्त खण्डताकी
सुधमाको, समस्त विरोधोकी शान्तिको पानके छिए साधना की है,
उनका ऋण भी किसी कालमें परिशोधित नहीं हो सकता । उनका
परिचय विछुप्त होनेसे; उनके उपदेश भूल जानेसे, मानव-सम्यता
अपने धूठि-घूम-समार्क।ण कारखानेके जन-समूहम, निश्वास-दूषित वायुसे
घिरे हुए झयून्यमें, पल पल्पर पीड़ित और कृश होकर मरने कगेगी ।
रामायण उन्हीं अखण्ड-अम्रत-पिपासुआका चिरपरिचय धारण किये है ।
इसमें जो सौश्रात्र, जो सत्यपरता, जो पातित्रत्य, जो प्रभु-भक्ति वर्णित है,
उसकी ओर यदि हम सरल श्रद्धा और आन्तरिक भक्ति रख
सके; तो हमारे कारखानेकी खिइकियेंमें, महासमुद्रकी निमठ वायु प्रवेश
कर सकती है ।
पोष ५, सन् १३१० ( बंगला )
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