प्राचीन साहित्य | Praachiin Saahity

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Praachiin Saahity by पं रामदहिन मिश्र - Pt. Ramdahin Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्० प्राचीन साधंदेत्य जो जाति खण्ड-सत्यका प्रघानता देसी है, जो लोग वास्तविक सत्यका अनुसरण करनेमें छान्तिका अनुभव नहीं करते, जो काव्यकों प्रकृतिका दर्पण मात्र समझते हैं, वे संसारमें समयके उपयोगी अनेक काय्ये करते हैं । वे विशेष घन्यवादके भाजन हैं; मानव-जाति उनके निकट ऋणी हे. । दूसरी ओर, जिन ठोगेंनि यह कहा हे कि “भूमेव सुख भूमात्वेव विजिज्ञासितव्य: ”” ( पूर्णता ही सुख हे, उसीको जाननेका प्रयत्न करना चाहिए ) और परिपूणे परिणाम ही. समस्त खण्डताकी सुधमाको, समस्त विरोधोकी शान्तिको पानके छिए साधना की है, उनका ऋण भी किसी कालमें परिशोधित नहीं हो सकता । उनका परिचय विछुप्त होनेसे; उनके उपदेश भूल जानेसे, मानव-सम्यता अपने धूठि-घूम-समार्क।ण कारखानेके जन-समूहम, निश्वास-दूषित वायुसे घिरे हुए झयून्यमें, पल पल्पर पीड़ित और कृश होकर मरने कगेगी । रामायण उन्हीं अखण्ड-अम्रत-पिपासुआका चिरपरिचय धारण किये है । इसमें जो सौश्रात्र, जो सत्यपरता, जो पातित्रत्य, जो प्रभु-भक्ति वर्णित है, उसकी ओर यदि हम सरल श्रद्धा और आन्तरिक भक्ति रख सके; तो हमारे कारखानेकी खिइकियेंमें, महासमुद्रकी निमठ वायु प्रवेश कर सकती है । पोष ५, सन्‌ १३१० ( बंगला ) न # ७ १-४ १७ भा भा भ ििना # ४ न भा




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