बहाने बाजी | Bahaane Baazi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ बहानेबाज़ी गो सेवा सम्मेलन” के सिलसिले में कुम्भ के अवसर पर हरिद्वार चलने का श्राप किया । सरकारी नियम था कि हैज़े का टीका लगवाना पड़ेगा । टण्डन जी द्वारा गो सेवा सम्मेलन के उद्घाटित होने की बात थी । कुम्भ में प्रवेश के लिए टीका लगवाना 'ावइ्यक होने के कारण उन्होंने दरिद्वार जाना ही स्वीकार नद्दीं किया । तभी सुनने में श्याया कि दिल्‍ली में बहुत थोड़े से पैसों में दैज़े के टीके का सर्टिफिकेट प्राप्य है। मैं हरिद्वार जाना भी स्थगित कर सकता था और विवश किये जाने पर टीका भी लगवा हो सकता था, किन्तु काले-बाजार में सर्टिफिकेट खरीदना मुकसे नहीं दो सकता था । सेठ गोविन्ददास जी की कृपा से उनके' घर पर दी एक डाक्टर ने देजे का टीक्रा लगा दिया । सेठ गोविन्ददास का तो मत है कि इन सुइयों का. सामान्य स्वास्थ्य से कोई सम्बन्ध नहीं । वे प्रतिवर्ष घर के लोगों की बाहें बिंधवाते रहते हैं । टण्डन- जी श्र गोविन्ददास जी हिन्दी के एक दूसरे से बढ़कर श्यराग्रही हैं, किन्तु इन सुइयों के भामले में दोनों के मत एक दम भिन्न ! प्रसिद्ध सूक्ति है--“वह मुनि दी नददीं जिसका मत भिन्न न दो ।” दरिद्वार से लोटे अभी बहुत दिन नहीं हुए थे कि लंका से तार द्वारा विरव बोद्ध सम्मेलन में सम्मिलित होने का निमंत्रण मिला । समय थोड़ा था । पासपोर्ट की व्यवस्था की शोर ,जैसे-तैसे लंका पहुँचा । लंका मेरे लिए भारत का दी एक दूसरा प्रान्त है ओर , भारत के कई प्रान्तों की अपेक्ता मैं जंका से अधिक परचित हूँ । वहाँ भारत से जो कोई भी जाता है उसे चेचक ( स्मालपीक्स ) का टीका लगवाना ही पढ़ता है । कुछ वर्ष पुरानी तआप-बीती इस प्रकार है-- दूसरी बार इंगलैण्ड जाने के सिलसिले में मैं लंका पहुँचा । 'यहाँ भारत में रहते टीका न लगवा सका था, इसलिए मुझे वहां कोरा-टीन आफिस में जाना पढ़ा। डाक्टर बोला--- ““आपने टीका नहीं लगवाया ?””




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