प्रबंध - कला | Prabandh Kala
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
25 MB
कुल पष्ठ :
563
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ढ्प
ध्यान देने पर विदित होगा कि प्रथम वाक्य यदि सूकि फे
समान होता है तो झाधिक श्ाकर्षक होना है; कडों हमको परि-
भाषा देनी पड़ती है, कहों किप्ती तथप्र का सालकए चजते हूं; कहीं
ऐतिहासिक दृष्टिकोण रखना पड़ता है, तथा कहों केबल कल्पना
फे चोड़े पर ही उड़ा दिया जाता है। परन्तु आकस्मिक झारम्भ
(एक करनिं० 006 पाए ए ) निश्चय डी पाठक के सानस पर
धिक अभाव डाला दे । तः लेखक को सुख-वाक्यों का मनन
कर स्वयं झापना सागे बनाना चाहिए ।
निवंध का प्रारंभ केवल प्रथम परिच्छेद में ही नहीं प्रत्येक प रिच्छेद
में जें वता हुआ होता चाहिए । मैं उन लोगों से सइमत नहीं जो
आरंभ तथा अंत को ही सब कुड् समसाकर सब्य को कोई महत्व नहीं
देते । जिस समय भी शिथिलता ब्ाजावेगी, पाठक लेख को पहन
से विरक दो जावेगा; सं भत्र है वह पूरा लेख पढ़े बिना हीं आपके
साहित्य के विषय में कोई स्थायी सम्मति वनाले । ऐसी दूशा में परी+
फ्ार्थी को बड़ी हानि होगी । झास्तु, उसे तो इस बात का प्रयत्न करना
चाहिए कि उसका लेख आदि से अंत तक आकर्षक बना रहे ।
निवंध का अंउ या,उपसंदार पाठक के. मस्तिष्क पर स्थायी
छाप छोड़ता है । इसके सी अनेक ढंग हो सकते हैं। हस यहाँ'
कोई नियम नहीं बना सकते । कु लोग किसी लोकोकि; पच या
उचबरंस में अपने, लेख़ का झवसान करते हैं; कु लोग सामयिक :
खेखां का अंत एक उत्साइचघंक आशाबाद में करते हैं । भावा-.
स्मक निवबंधों का अंत तो कल्पना या रंग में होना ही 'वाहिए.!'
हमारे छुछ लेखों का अंत इस प्रकार हुआ हैः--
६१) अनुभव के बिलां हस यह सोच ही नहीं पाते कि यड'
संसार प्रेम करने का--मित्रता जोड़ने का--स्थल नहीं; यहाँ .तो
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