प्रबंध - कला | Prabandh Kala

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Prabandh Kala by ओमप्रकाश - Om Prakash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ढ्प ध्यान देने पर विदित होगा कि प्रथम वाक्य यदि सूकि फे समान होता है तो झाधिक श्ाकर्षक होना है; कडों हमको परि- भाषा देनी पड़ती है, कहों किप्ती तथप्र का सालकए चजते हूं; कहीं ऐतिहासिक दृष्टिकोण रखना पड़ता है, तथा कहों केबल कल्पना फे चोड़े पर ही उड़ा दिया जाता है। परन्तु आकस्मिक झारम्भ (एक करनिं० 006 पाए ए ) निश्चय डी पाठक के सानस पर धिक अभाव डाला दे । तः लेखक को सुख-वाक्यों का मनन कर स्वयं झापना सागे बनाना चाहिए । निवंध का प्रारंभ केवल प्रथम परिच्छेद में ही नहीं प्रत्येक प रिच्छेद में जें वता हुआ होता चाहिए । मैं उन लोगों से सइमत नहीं जो आरंभ तथा अंत को ही सब कुड् समसाकर सब्य को कोई महत्व नहीं देते । जिस समय भी शिथिलता ब्ाजावेगी, पाठक लेख को पहन से विरक दो जावेगा; सं भत्र है वह पूरा लेख पढ़े बिना हीं आपके साहित्य के विषय में कोई स्थायी सम्मति वनाले । ऐसी दूशा में परी+ फ्ार्थी को बड़ी हानि होगी । झास्तु, उसे तो इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि उसका लेख आदि से अंत तक आकर्षक बना रहे । निवंध का अंउ या,उपसंदार पाठक के. मस्तिष्क पर स्थायी छाप छोड़ता है । इसके सी अनेक ढंग हो सकते हैं। हस यहाँ' कोई नियम नहीं बना सकते । कु लोग किसी लोकोकि; पच या उचबरंस में अपने, लेख़ का झवसान करते हैं; कु लोग सामयिक : खेखां का अंत एक उत्साइचघंक आशाबाद में करते हैं । भावा-. स्मक निवबंधों का अंत तो कल्पना या रंग में होना ही 'वाहिए.!' हमारे छुछ लेखों का अंत इस प्रकार हुआ हैः-- ६१) अनुभव के बिलां हस यह सोच ही नहीं पाते कि यड' संसार प्रेम करने का--मित्रता जोड़ने का--स्थल नहीं; यहाँ .तो




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