काश्मीर कीर्ति कलश | Kashmeer Keerti Kalash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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का उनना ही उल्लेख किया है, जितने वा सम्बन्ध, साइमीर ने इतिहास जौर उनवे जीयन में है ! राज-तरगिणा' पद काव्य है। उससे लगभग सभी रसा वा परिपार्क हुमा है। दिस्तु दातरस अधिक भावोत्पादक है । वहीं उसका स्थायी रस है। मैंने भी यथाशक्ति, बल्हण वी झोनी था अनुकरेण इसविए विया है कि पाठक से कालीन दौनी की भलक ले संवें । बल्हण की राजतरगिणी में आठ तरग हैं। इस पुस्तक मं प्रथम तीन तरग, जिन्ह गाथाकाल बहा जा सकता है, उनमे वर्णित नुपों वा बणन है। जनवा ऐतिहासिक महत्त्व उतना ही है, जितना होना सम्भव हो सकता है । मैंने अपनी ओर से पुस्तक वा रोचक एय ठावपक बनाने वे लिए कुछ जोड़ा नहीं है। अपनी कल्पना की दूर रखा है । काइमीर की जो अवस्था थी, जो मन स्थिति थी जो मामाजिक व्यवस्था थी, जो परम्परा थी, जा मान्यनाएं थी, उन्हें अविल सूप में प्रस्तुत क्या है । यह पुस्तक उद्देश्यहीन शब्दाडम्वर नहीं हैं । दस पुस्तक वा एव महान उद्देश्य हैं--भारतीय जनता, विदव की जनता, काइमीर के गौरवपूण अतीत वा दशन करें । उन विस्मृत राजाओं के चरित का दर्शन करें, जा विश्व के विसी भी देंग, किसी भी राष्ट्र, किसी भी शषेत्र गे प्रतापराली राजाओं की अग्रिम पवित में उन्नत सस्तव' दिखायी देंगे । यह पुस्तक जद वितान मय, काव्यमय, भाषा में काई रोचव प्रसंग उपस्थित नहीं बरती, ममोविनोद नहीं करती, सुप्त कोमल भावना जागृत नहीं बरती 1 वत्पनामय मनोराम्य में घूमाती नहीं । इसका लक्ष्य है। विश्व समझे । इस छोट-स झुसण्ड वाइमीर छपर्यका में वे महान नरप्नारी निवास बरते थे, विचरते थे, जिन्होंने मानवीय विकास का जमिनिव प्रयोग किया है। उनका वह चिन्तन, एयेन्स दे रथ्या, स्पार्टा वें व्यायामशाला, उनके उपहार-गृह्दो मे होती चर्चाओ से बम महत्व नहीं 'रस्वता यहा लोराकेल डेरपी थे मरविध्यवाणी सुल्य योगिनिया, यागियों की वाणी वे प्रशसक नहीं होते थे । उनमें अन्यविश्वास रखने चाले नही थे। दे सब कुछ देखने थे, सुनने थे, विन्तु स्वय एक निष्कर्ष पर, मुक्त विघार देय पंयानुवरण कर, पहुंचने का प्रयास बरते थे । बौद्धिक तुला पर तौलते थे । बाइमीर के विस्मृत राजाओं वें कम एव उनकी विक्रामोपयोगी योजनाओं पर दुष्टिपात करें तो व अपनी कमठता वे कारण, अपने ह्याग के कारण, अपने महीने बिचारा वे कारण, विश्व वे सम्राटों एव राजाओं वी श्यखलाओ मे सर्वोच्च टिखर यर जायीन दृषिटियोवर हरि । उनमें कुछ वा चरिश्र उतना ही निर्मत है, पावन है, उज्जदत है. जितना तरगिणी गगा वा धबल प्रवाह । उनमें कुछ चरिन्र विधित दोपमय हैं। “वह दोप ५




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