न्याय विनिश्चय विवरण भाग १ | Nyaya Vinischayavivaranam Part.1

Nyaya Vinischayavivaranam Part.1  by महेंद्र कुमार जैन - Mahendra kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(७ 2) करने के लिए तत्तत्पू्व॑पक्षीय ग्रम्थों के पाठ उसकी टीका तथा अर्थबरोधक टिप्पण ही विदेषरूप से लिखे हैं । ग्रन्थ को समझने में इनसे पर्याप्त सहायता मिलेगी । टाइप--मुल कारिकाओं के लिए श्रेट न॑ १ अवतरण वाक्यों के लिए ग्रेट न॑ २ ओर विवरण के छिए ग्रेट न॑ ४ टाइप का उपयोग किया गया है । रटिप्पण में अ्रन्थीं के नाम तथा प्रतियों के नाम काले टाइप में दिए गए हैं । प्रस्तावना--में प्रथ ओर ग्रन्थकार से सम्बन्ध रखने वाले कुछ खास मुद्दों पर संक्षेप में विचार किया है । कुछ प्रमेयों को नए दृष्टिकोण से देखने का भी लघुप्रयत्न हुआ है । स्याद्वाद और सप्तमंगी के विपय में प्रचलित अनेक ऑ्रान्तमतों की समीक्षा की गई है । ग्रन्थकार अकलड़ू के समग्र के सम्बन्ध में विस्तार से लिखने का विचार था पर अपेक्षित सामग्री की पूर्णता न होने से कुछ काल के लिए यह कार्य स्थगित कर दिया है । ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला में आगे न्यायविनिश्वय विवरण का द्वितीय भाग तत्त्वार्थवार्तिक और सिद्धिविनिश्चय टीका ये अकलड्लीय ग्रन्थ प्रकाशित होने वाले हैं । जिनमें न्यायविनिश्चय विव- रण द्वितीय भाग आधा छप भी गया है । तस्वार्थवार्तिक तीन ताइपन्रीय तथा अनेक कांगज पर लिखी गई प्राचीन प्रतियों से झुद्धटतम रूप में सम्पादित हो चुका हैं तथा सिद्धिविनिश्वयटीका पर भी पर्याप्त श्रम किया जा चुका है। आशा है यह समस्त अकलकूवाडमय शीघ्र ही प्रकादा में आएगा । तब तक अकलक के समय आदि की साधिका सामग्री पर्याप्त मात्रा में प्रकाश में आयगी | ज्ञानपीठ के अनुसंघान विभाग में अप्रकाशित अकलक्लीय वाइमय का प्रकाशन तथा अशुद् प्रकाशित का झुद्ध प्रकाशन ओर तत्वाधंसूत्र की अप्रकाशित टीकाओं का प्रकादान यहां काय मुख्यतया मेरे कार्यक्रम में हैं । विविध विपय के संस्क्रत प्राकृत ओर अपग्रंश मापा के दसों ग्रन्थ अधिकारी विद्वानों द्वारा सम्पादित हो चुके हैं, जो छपाई की सुधिधा होते ही प्रकाशित होंगे । संस्कृतिसेवका, जिनवाणी भक्ती और साहित्यानुरागियों को ज्ञानपीठ के साहित्य का प्रसार करके उसके इस सांस्कृतिक अनुष्टान में सहयोग देना चाहिए । आभार-दानवीर साहु शान्तिप्रसाद जी तथा उनकी समख्पा 'घमंपत्नी सोजन्यमूर्ति रमार्जी ने सांस्कृ- तिक साहित्योद्धार आर नव साहित्य निर्माण की पुनीत भावना से भारतीय जञानपीठ का संस्थापन किया हे और इसमें घ्मंप्रणा स्व ० मातेइवरी मूर्तिदेवी की. भव्य भावना को मूतरूप देने के लिए ज्ञानपीठ मूतिदेवी जेन ग्रन्थमाला का संस्कृत प्राकृत हिन्दी आदि अनेक भाषाओं में प्रकाशन किया है । इनकी यह सं स्कृति- सेवा भारत के गोरवमय्र इतिहास का आालोकमय प्रष्ट बनेगी । इस भद्द दम्पति से ऐसे ही अनेक सांस्कृ- तिक कार्य होने की आशा है । श्रद्धय ज्ञाननयन पं ०'सुखलाऊ जी की झुभ भावनाएँ तथा उपलब्ध सामग्री का यथेष्ट उपयोग करने की सुविधाएँ और विचारोत्तेजन आदि मेरे मानस विकास के सम्बल हैं । श्रीमान्‌ पं ० नायूरासजी प्रेमी का किन दाब्दों में स्मरण किया जाय, ये चतुर माली के समान ज्ञानाड्रों को पटरवित ओर पुष्पित करने में अपनी शक्ति का लेश भी नहीं छिपाते । आपका वादिराज सूरि वाला निबन्ध ग्रन्थकार भाग में उद्छत किया गया है । सुहद्वर महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी कठिन तिब्यत यात्रा में प्राप्त प्रज्ञाकर- गुप्तक़ृत प्रमाणवार्तिकालड्टार की प्रति देकर तो इस ग्रन्थ के झुद्ध सम्पादन का द्वार ही खोछ दिया है । में इन सब ज्ञानपथगामियों का पुनः पुनः स्मरण करता हुँ । श्री पं० देवरभट्ट शर्मा न्यायाचार्य ने ताडपत्रीय कन्नड़ प्रति का आद्यन्त वाचन ही कहीं किया किन्तु सम्पादन में भी अपने वेदुष्य से घूरा पूरा सहयोग दिया है । प॑ ० महादेवजी चतुर्वेदी ब्याकरणाचार्य ने इस ग्रन्थ के प्रूफ संशोधन में पूण सहकार किया है। श्री पं० भुजबली जी शास्त्री तथा पं ० लोकनाथजी शास्त्री भूडबिड्ठी ने ताडपन्रीय प्रतियों को भेजा है। श्री पं ० नेमीचन्द्रजी आरा, पं ० जुगुलकिशोरजी मुख्तार सरसावा आदि महानुभाषों ने अपने अपने प्न्थ भण्डार की प्रतियाँ सम्पादनार्थ दीं । मैं इन सबका आभार मानता हु ।




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