उत्तर पुराण | Utrpuran

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Utrpuran by पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम संस्करणका प्रास्वाविक ११ मान्यलेट थी जहाँ विद्वानोंशा अच्छा समागम हुआ करता था । अमोधवर्ष केवल एक प्रबल सम्राट ही नहीं थे, किन्तु वे साहिस्यके लाधपदाता भी थे। स्वयं भी वे शास्त्रीय चचमिं रुचि खोर साहित्यिक योग्यता रखते थे । अलंकार-विषयक एक कनतडप्रंष 'कविराजमार्ग' उनकी कृति कही जाती है। वे जिनसेमके बड़े भक्त थे और जिनसेकके संयम और साहित्मिक गुणोंसे खुब प्रभावित हुए प्रतीत होते हैं । वे शीघ्र ही जैनधर्मके पक्के अनुयायी हो गये । उनके संस्कृतकाव्य 'प्रदनोत्तररत्नमाला' तथा उनके सम- कालीन महावीराचारयं कृत “गणितसार संग्रदू' के युस्पष्ट उल्लेखोंकि अनुसार उन्होंने राज्य त्यागकर घामिक जीवन स्वोकार किया था । ( देखिए प्रो० होरालाल जैन : 'राष्ट्रकूट नरेश अमोधवर्षकों जैनदीक्षा' जै० सि० भास्कर भा० ९ कि० १; तथा अनेकान्त, वे ५, पु० १८३-१८७) उनका राज्यकास खुब विजयी लौर समृद्धिशाली रहा, तथा वे दीघंकाछ तक जीवित रहे । जिनसेनने वीरसेन कौर जयसेम जैसे गुरुओसि व्याकरण, अलंकार, न्याय आदि परम्परागत भागा विद्याओंको सीखकर अपनी साहित्यिक सृष्टि अनुमानतः शक सं० ७०५ ( सन्‌ ७८३ ) से कुछ पूर्व संस्कृत काव्य पाइ्वास्युदयकी रचनासे की। यह काव्य संस्कृत साहित्यमें बनूठा माना जाता है । इस कवितामें कविने अपने प्रत्येक पद्यमें अनुक्रमसे कालिदास कृत मेघदूत नामक शण्ड-कांव्यकी एक या दो पंक्तियी थनुषद्ध की हैं थोर शेष पंक्तियाँ स्वयं बनायीं है। इस प्रकार घन्होंने अपने काव्यमें समस्या- पूतिके काव्य कोशल-हवारा समस्त मेघदूतकों प्रथित कर लिया है। यथपि दोनों काव्योंका कथामाग परस्पर सर्वधा सिन्न है, तथापि मेषदूतकी पंक्तियाँ पाइव्पुवयमें बड़े ही सुन्दर थौर स्वाभाविक ढंगसे बैठ गयी हैं। समस्यापूर्तिकी कला कविपर अनेक नियन्त्रण छगा देती है। तथापि जिनसेनने अपनी रचताकों ऐसी कुशकता और चतुराईसे सम्हाला है कि पाध्व्युदयके पाठककों कहीं भीं यह सन्देहु नहीं हो पाता कि उसमें अन्यविषयक व भिन्न प्रसंगात्सक एक पृथक काव्यका सो समावेश है। इस प्रकार पाइवश्युदय जिनसेनके संस्कृत भाषापर अधिकार तथा कामब्यकोशलका एक सुन्दर प्रमाण है । वन्ह्ोंने जो कालिदासके काव्यकी प्रशंसा की है उससे तो उनका व्यक्तित्व बोर भी ऊंचा उठ जाता है । महान कवि ही अपनी कवितामें दूसरे कविकी प्रशंसा कर सकता है । इस काव्यके सम्बन्धमें प्रोफेसर के ० थी० पाठरका मत है कि ''पाइव्युदय संस्कृत सा दित्यकी एक अदृमुत रचना है। वहू धपने युगकी साहित्यिक रुचिकी उपज धोर आदर है । मारतीय कवियोमें सर्वोच्चस्थान सर्वसम्मतिसे कालिदासकों मिला है । तथापि मेघटुतके कर्ताकी अपेक्षा जिनसेन अधिक प्रतिमाधाली कबि मावे जानेके योग्य हैं।'” ( बनेल, बाम्बे ब्रांच, रायल एशियाटिक सोसायटी, संख्या ४९, व्हा० १८ (१८९२) तथा पाठक-द्वारा सम्पादित 'मेषदून' द्वि० संस्करण, पूना १९१६, भूमिका पु० २३ आदि ) अपनी पट्खण्डागम-टोकाको बहसर हजार लोक प्रमाण प्रत्याग्रमें समाप्त करनेके परचात्‌ वी रसेन स्वामीने बघाय-प्राभृतपर जयधवलाटीका लिखना प्रारम्भ किया । इसकी बीस हजार पछोकप्रमाण ही रचना हो पायी थी कि उनका स्वर्गवास हो गया । अतः उस टीकाको पुरा करनेका कार्य उनके सुयोग्य दिव्य जिनसेनपर पड़ा । इन्होंने इस महाम भोर पवित्र प्रन्थको अपनी चालीस हजार दछोकप्रमाण रचना द्वारा सनू ८३५८ ईस्वीमें समाप्त किया । ये विशाल टीकाएं उनके कर्ताओंकि गम्मीर शानों तथा जैनधर्मके समस्त अंगों और विशेषत: कमेंसिद्धाम्तके महान पाण्डित्यकी परिचायक हैं। इन रचना ओंमें तड़िषयक समस्त ज्ञातव्य चाठोंका एवं प्राय: पुर्वेकाकीन संस्कृत प्राकृत टीवाओंका समावेश कर लिया गया है। जिनसेनाचार्येका काव्यकोशल उनके स्मरणोय काव्य पाइव्युवयसे एवं उनकी विशारू विद्वता उनकी मर टीका जयघवल्ासे सुस्पष्ट है । महापुराणमें उनकी यही छ्िमुखी प्रतिमा और भी खुब विकसित छपमें दष्टिगोजर हो रही है। जेन पुराण और सिद्धान्तकी दृष्टिसि तो महापुराणका विशेषज्ञों-दारा पर्याप्त बादर किया जाता है; किम्तु इस रचनाके सादित्यिक गुणोंकी थोर संस्कृत का जितना चाहिए उतना ध्यान नहीं गया । महदा- पुराणके थनेक खण्ड संर्क्त काम्यके अति सुम्दर उदाहरण हैं। इस केत्रमें जिनसेनने धपने पूर्वकालीन कवियोंकी कृतियोंसि सुररिचिय प्रकट किया है। शन्होंने संस्कृत भाषाका प्रयोग बड़े सरल बोर स्वाभाविक




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