प्रवचन - पीयूष - कलश भाग - 1 | Pravachan - Piyush - Kalash Bhag - 1
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
329
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)् प्रवचन-पी यूप-कल दा
चोर ने नगर शब्दों में राजा को उत्तर दिया ।
उपर्युक्त कहानी से यह सिंद्ध होता है कि मुख मिन से विद्वान शतु अच्छा 1
किसी विद्वान का कथन है कि रागी अवगुण नही लखा करता । उसे मित्र
के दोप दुष्टिगोचर नही होते झौर दन्नु के गुण दिखाई नह्दी देते । कहा भी है
* रागी श्रवयुण नहि लखे, यही जगत की चाल ।
परतिख्र काला किसन जी, ज्या ने कहे कन्हेया लाल ।”
राग श्रौर द्वेप का ग्रपनी तीव्रता पर पहुचना ही मिथ्यात्व है । जैसा कि
पहले कहा जा चुका है--राग श्र देष दोनो बन्घन है । रागी को झ्वगुण न
दिखने से वन्धन है तो ट्वेपी को गुण न दिखने से भी बन्धन ही है । इसके झति-
रिवत ये दोनो रागी झ्ौर ट्वेपी, कमदा अवसुण को गुण श्रौर गुण को श्रवगुण
के रूप में देखने लगते हे । यहीं राग श्रौर ढ्रष की तीव्रता है प्ौर इसी कारण
ये दोनो मिथ्यात्वी माने जाते है। मिथ्यात्व से झावृत्त मानव-प्रकृति न राग को
मिटाना चाहती है श्रौर न दप को । वहुत समभाने पर भी व्यवित्त बन्धन को
बन्धन न मानकर उसे श्रपनी प्रतिप्ठा का साघन मानने लगता है ।
राग श्र ढ्रेप को जव तक महान् पाप एव दुष्काट्य बन्घन नहीं सम भा
जाता, तब तक श्रात्मकल्याण कदापि सम्भव नही है । राग श्रौर टेप के बन्धन
रस्सी श्र साँकल के बन्धन जैसे नही है । रस्सी श्रौर साँकल के बन्धन तो
वहा बन्धन हे । इन चन्धनों से हम पूरे नही वँघ सकते । फिर ये बच्घन तो
हमें इन्द्रियो से भी दिखाई दे जाते है । थोडे-से प्रयत्नो के फलस्वरूप बाह्य
स्थनो से मुक्ति मिल सकती है किन्तु राग श्रौर द्वेप के वस्घन ऐसे नही हे 1
थे तो आ्रान्तरिक बन्घन है । इन्होंने झात्मा के एक एक प्रदेश को जकड रखा
है, बाँध रखा है । श्रात्म प्रदेशों से एकाकार होकर, ये हमे इघर-उबर, नीचे-
ऊपर भटकाने का काम करते हे । फिर ये बन्घन हमें वन्धन के रूप में दृष्टि-
गोचर भी नहीं हो सकते । इसके लिए तो श्रात्मा की जागृति एव सावधानी
ही आवश्यक है । बिना आत्मजागृति के हमें विभिन्न दुगतियो में ्रमण करना
पडता है एव झसह्य दुख भोगने पड़ते हे । बाह्य बत्धन केंवल शअरद्ममात्र को
वाँधते है । उनसे हमारे किसी काम में वाघा नहीं पड़ती । उदाहरण के लिए
जब एक हाथ व जाये तो दूसरा हाथ, दोनो हाथ बँघ जायें तो पैर, हाथ,
पैर बँघ जायें तो दारीर के श्रन्य भाग मेंह, दाँत आदि अपनी-अपनी क्षमताझो
से शरीर को वन्घन से सुवत कर सकते है। यह बाह्य वन्घन इतना हानिकारक
नही है। किन्तु राग-द्वेष का वन्धन तो ऐसा बन्धन है जिससे हमारा रोम-
रोम बंध जाता है । यहाँ, तक कि राग-दटेष के विरुद्ध हमारे सोचने की झाक्ति
भी समाप्त हो जाती है । हमारे मन; बचन श्रौर काय सभी उसमें बँघ जाते
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