प्रवचन पीयूष कलश | Pravachan Piyush Kalash

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Pravachan Piyush Kalash by श्री लालचन्द जी महाराज - Shri Lalchand Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बन्धन-मुक्ति : शाश्वत-सुख मुवित शाश्वत सुखों की निधि है। जीव की दो प्रकार की श्रवस्थाएँ होती हैं : १. बृद्धावस्था और २. गवृद्धावस्था | दोनों श्रवस्या से संपृक्त प्राणी पृथक्‌-पुथक्‌ नामो से जाने जाते हैं। एक को 'संसारी' एवं दूसरे को शुत कहा जाता है | कर्म-बन्धव से बद्ध संसारी कहलाता है ओर कर्मो की निर्जरा करने वाला मुक्त कहलाता है। संस्तारी' शब्द की निरुकित के श्रनुस्ार संसार में संसरण-भ्रमण करते वाला इधर से उधर, उधर से इंघर, नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे, जिधर भी आकर्षण हो, उधर चला जाने वाला संसारी होता है। कर्मबद्ध जीवों का आकर्षण के अनुसार इधर-उधर जाना तो स्वाभाविक ही होता है किन्तु अश्चर्य की वात तो यह है कि वन्धन में बंधे होने पर भी जीव बन्धन के ज्ञान से हीन होते हैं । ज्ञानाभाव के कारण ही वे वन्धन से छटने का किचित्‌ प्रयास भी नहीं कर सकेते। वे वन्धन के इतने आदी हो जाते हैं कि वन्‍्घन बुरा लगते के स्थान पर उन्हें श्रल्छा लगने लगता है। यही कारण है कि बन्धन से छुटकारा पाने के स्थान पर वे बन्‍्धन को और अधिक दृढ़ बचाने में प्रयत्तशील रहते हैं। वास्तव में, वे बन्धन को बन्धन नहीं, झव- लम्बन समभने लगते हैं। मानव के अ्रतिरिवतत, बन्धन की झासबित को उदा* हरण पशु-जगत्‌ में भी देखा जा सकता हैं। लोग पशुओं को पालते हैं, उन्हें खिलाते हैं, पिलाते हैं और खूंदे से वाँधकर रखते हैं। उन्हें चरते के लिए चरागाह में भेज देते हैं। सायं चरने के पश्चात्‌ तृप्त होकर पशु पुतः अपने खूँटे के पास भ्राकर खड़े हो जाते हैं, बन्चव के लिए । स्वामी द्वारा तिरस्कृत होकर भी पशु भागते नहीं, कारण कि वे बन्धेन को सुख का कारण मानमे लगते हैं। उन्हें हिताहित का विवेक नहीं होता | माचव होकर भी क्या हमने कभी इस विपय का चिन्तन किया है ? ठीक पशुओं के समतन्त, मानव को भी बन्धत प्रिय लगता है! शास्त्र कारों ने बन्धन के दो भेद किये हैं--- १. राग और २, हेष | आवश्यक सूत्र में ; “पडिक्कसासि दोहि बंधर्णह”




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