महाकवि स्वयम्भू | Mahakavi Svayambhu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६ ) बनाये रखा उन्हीं शक्तियों ने अपज्रश को भी “भाषा' के आसन से अपदस्थ होने पर भी साहित्य के प्रांगण से नहीं हटने दिया । फिर भी काल-विस्तार की हृष्टि से अपभ्न श-साहित्य का ठीक-ठीक आयाम बता सकना संभव नहीं । कारण, उसका पूर्ण साहित्य अभी भी प्रकाश में आना शेष है 'जिन-रत्त-कोश' (सिम्पादक हरि दामोदर वेलणकर) आदि प्रकाशित प्रन्थ-सूचियों से अपस्रश साहित्य के काल- बिचार का सही अवुमान नहीं हो पाता । अभी भी न जाने कितने प्रंथ जैन-भाण्डारों में अपने उद्घारकर्ता की प्रतीक्षा में पड़े हैं। श्री नामबरसिंह* तथा डाक्टर कोछड़* ने अपभ्रश के प्राप्त प्रकाशित तथा अप्रकाशित ग्रंथों की सूचियाँ काल-क्रम से देने का प्रयत्न किया है । डा० कोछड़ की सूची के असुसार अपज्रश में ग्रंथ रचना कम से कम १७०० वि० तक होती रही । उन्होंने सूची के अन्त में कुछ रचना-तिथि-हीन प्रंथों के नाम भी दिये हैं। ये ग्रंथ १७०० वि० के पूर्व के भी हो सकते हैं और बाद के भी । किन्तु इससे इतना तो निश्चित है कि अपन्र'श में साहित्य-रचना का उपक्रम ७वीं शती से आरम्भ होकर कम से कम १७वीं शती तक चलता रहा । एक-सहख्र-वर्ष पर्यन्त जो भाषा साहित्यिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनी रह सकी उसमें अवश्य ही विलक्षण शक्ति रही होगी । काल-चिस्तार की भाँति ही अपन श का क्षेत्र-विस्तार भी बहुत अधिक है । अपने प्रयोग-काल में वह समूचे उत्तरी भारत की भाषा रही । काव्य भाषा के रूप में वह गुजरात, पश्चिमी पंजाब से लेकर बंगाल तक चलती थी । देश-भेद से अपध्रश की बोलियों के अनेक भेद बैयाकरणों ने किए हैं । कहीं-कहीं ये भेद प्रयोक्ता जाति या वर्ग पर भी आधारित हैं । वररुचि (६-७ शती ) के “प्राकृत-प्रकाश' में केवल प्राकृत-भाषाओं का वर्णन है, यद्यपि तब अपभध्रश का जन्म हो चुका था । वररुचि ने प्राकृत के चार भेद--प्राकृत (अर्थात्‌ महाराष्ट्री) मागधी, शौरसेनी और पैशाची--गिनाकर छोड़ दिया । आगे चलकर हेमचन्द्र ने 'शब्दानुशासन' में प्राकृत के इन चार भेदों में ३ भेद और जोड़कर इनकी संख्या ७ की और ७वें भेद को अपभ्रश कहा । माकंण्डेय (१७ शताब्दी ईसवी) ने अपने 'प्राकृत सवंस्व' में एक अज्ञात लेखक दारा अपब्रश के २७ भेद बताये जाने की चर्चा की है। पर स्वयं उन्होंने अपभ्रश के केवल ३ भेद--नागर, ब्राचड़, उपनागर--स्वीकार किए हैं। प्राकृत भाषा ने ही विकसित होकर अपभ्नश का रूप घारण किया, इसलिए कुछ विद्वानों का मत है कि अपभ्र श के उतने हो भेद होने चाहिए जितने प्राकृत भाषा के गिनाये गये हैं ।3 पर यह सिद्धान्त व्यवहार में चरिताथ॑ नहीं हो सका । अपभ्रश के सभी भेदों में नागर अथवा शौरसेनी की प्रमुखता थी । शौरसेनी का समस्त अपन्र श-भेदों में वही स्थान है जो महाराष्ट्री का प्राकृतों में या खड़ी बोली का आज की भारतीय भाषाओं में ।*॑ डा० चादुर्ज्या* का कथन तथ्यपूर्ण है कि गुजरात से लेकर बंगाल तक १--हिस्दी के विकास में भ्रपज्न दा का योग, पृष्ठ ११७७-८९ । २--झपश्र श-साहित्य, पृ० ४०९६-१३ , ३--रामकुसार वर्मा, हिस्दी साहित्य का भालोचनात्मक इतिहास, पृ० ४1 'ह--तदभव दास्त्र, पु० ३१। इ--भौरिलिन एण्ड डेवेलप्मेंट शाव बंगाली लेंगबेज, पृ० ११३।




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