विकास भाग - 2 | Vikas Bhag - 2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
308
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about प्रताप नारायण श्रीवास्तव - Pratap Narayan Shrivastav
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)चिकास ' देर
मानती ने साभिमान कहा--'“क्यों, सेरे जाने के लिये क्या कहीं
जगह नहीं ? झपने घर जाती हूँ, धर कहाँ लाती हूँ ।””
यह कहकर मात्ती सीट पर बैठ गई ।
झाभा ने उसके पास पहुँचकर उसका हाथ पकदते हुए कहना
“यह नहीं होने का । में किसी सरह तुम्हें न जाने दू मी । शगर तुम
जाधोगी, तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी ।”?
साल्तती ने कहा यह भी कोई ज़िंद है । मुखे देखकर
जब शाप इतनी सुष्ट होती हैं, तो जाने में दी कल्याण है ।
अभी तो किइकी मिली है, ' भव झारे कहीं और कुछ न मिक्
जाय 1 ? ः
भा ने जजित दोते हुए कहा--'माक्षती, मेरा प्रपराध क्षमा
: करो । मैंने सचमुच शन्याय किया है । में नहीं जानती, उस वक्त,
सुखे क्या हो गया था ।??
राणा के स्वर में परश्चात्ताप की मलिनता थी 1
सालती ने प्रसन्नता छिपाते हुए कहा--''झब क्या होता है !
पहले तो किसी का शपमान कर दों, फिर. माफ़ी साँगो, यह कहाँ
का न्याय है । ' ः
थामा से गन्नानि - के साथ कहा--''सालती, शान तो तुम्हें
मेरा शपराघ कमा करना ही होगा, चाहे जो कुछ हो |”
उसके' स्वर में सत्यत्ता की कोमलता धौर विनय की
सश्ता थी । ' ४
साकती ने सुस्किराते हुए कद्दा--''एक शर्त पर मैं यहाँ ठहर
सकती हूँ ।”?
श्रासा ने च्ययता के साथ पूछा--''चहं क्या (7
: मानती ने गंभीरता के साथ कहा--''पहले वचन दो, धर मेरी
कसम खाद्यो । ”
User Reviews
No Reviews | Add Yours...