आशीर्वाद | Aashirvad

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Aashirvad by प्रताप नारायण श्रीवास्तव - Pratap Narayan Shrivastav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२० आशीर्वाद न्‍न्ज्ज्त्ल्ल् ^-^“ भी अवकाश नदीं मिलता। यद्यपि मै रात-दिन काम में जुटा रहता हूँ, लेकिन अब तक उस भिखारिनी को नहीं भूल सका। उसकी आह-भरी चितवन ज्यो-की त्यों हृदय-पटल पर अंकित हे। जभी 'फुरसत में बेठता हूँ, तभी उसका खयाल आ जाता है। ज्यों-ब्यो उसको भूलने की चेष्टा करता हूँ, त्यो-त्यों उसका चित्र मेरे मन पर उज्ज्वल हो जाता है। अपसी स्त्री से में आजकल उसके संबंध में कुछ _नहीं कहता ।न कहने का कोई विशेष कारण नहीं था, लेकिन कहने का साहस न होता था। मुझे सदेव यही डर लगा रहता था कि कहीं वह सचमुच समझने न लग जाय कि मेरा उस पर प्र म॒ है । मेरा हृदय यहाँ तक दुबेल हो गया था कि कभी-कभी मुझे मालूम होता कि शायद वास्तव में में उसके रूप पर मुग्ध हूँ । अगर मुग्ध नहीं हूँ, तो उसकी याद क्‍यों नहीं भूलती ? जीवन में सेकड़ों भिखारिनों को देखा है, लेकिन याद किंसी की भी नहीं इसी भिखारिनी की स्मृति क्यो इतनी सजग है ? हृदय उत्तर देता, उसकी असहाय दशा | किंतु मैने तो उससे भी दीन दशा में लोगों को देखा है, फिर उनकी याद क्‍यों नहीं है? इसी मिखारिनी की याद क्यों अभी तक बनी है ? हृदय उत्तर देता, क्योंकि आज तक तुमने एक असाधारण सुन्दरी को भीख मांगते नहीं देखा, तुम्हारे जीवन में यह एक असाधारण घटना है, इसीलिए उसकी इतनी याद है। तो क्या वास्तव में में उसको उसके रूप के कारण ही याद करता हूँ ? हृदय कहता-+ बेशक ! तो कया में उसके रूप पर मुग्ध हूँ ? यह बात हृदय मानने ^^ ०0 १)




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