विकास भाग - 2 | Vikas Bhag - 2

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Vikas Bhag - 2 by प्रताप नारायण श्रीवास्तव - Pratap Narayan Shrivastav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चिकास ' देर मानती ने साभिमान कहा--'“क्यों, सेरे जाने के लिये क्या कहीं जगह नहीं ? झपने घर जाती हूँ, धर कहाँ लाती हूँ ।”” यह कहकर मात्ती सीट पर बैठ गई । झाभा ने उसके पास पहुँचकर उसका हाथ पकदते हुए कहना “यह नहीं होने का । में किसी सरह तुम्हें न जाने दू मी । शगर तुम जाधोगी, तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी ।”? साल्तती ने कहा यह भी कोई ज़िंद है । मुखे देखकर जब शाप इतनी सुष्ट होती हैं, तो जाने में दी कल्याण है । अभी तो किइकी मिली है, ' भव झारे कहीं और कुछ न मिक् जाय 1 ? ः भा ने जजित दोते हुए कहा--'माक्षती, मेरा प्रपराध क्षमा : करो । मैंने सचमुच शन्याय किया है । में नहीं जानती, उस वक्त, सुखे क्या हो गया था ।?? राणा के स्वर में परश्चात्ताप की मलिनता थी 1 सालती ने प्रसन्नता छिपाते हुए कहा--''झब क्या होता है ! पहले तो किसी का शपमान कर दों, फिर. माफ़ी साँगो, यह कहाँ का न्याय है । ' ः थामा से गन्नानि - के साथ कहा--''सालती, शान तो तुम्हें मेरा शपराघ कमा करना ही होगा, चाहे जो कुछ हो |” उसके' स्वर में सत्यत्ता की कोमलता धौर विनय की सश्ता थी । ' ४ साकती ने सुस्किराते हुए कद्दा--''एक शर्त पर मैं यहाँ ठहर सकती हूँ ।”? श्रासा ने च्ययता के साथ पूछा--''चहं क्या (7 : मानती ने गंभीरता के साथ कहा--''पहले वचन दो, धर मेरी कसम खाद्यो । ”




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