भारत का मुक्ति - संग्राम | Bharat Ka Mukti-sangram
श्रेणी : इतिहास / History, भारत / India
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
32.78 MB
कुल पष्ठ :
473
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध - Ayodhya Singh Upadhyay Hariaudh
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६ भारत का मुश्तिन्संप्राम मदद की.। भाफ के इंजिन पावर लूम और बड़े पैमाने पर माल तैयार करनेवाली मशीनों का आविष्कार हुआ । औेगिक क्रान्ति के पूरा होने पर ब्रिटेन के कारखानेदारों के सामने बाजार की समस्या खड़ी हो गयी । अपने कारखानों का माल बेचने के लिए उन्हें बाजार की जरूरत थी ।. हिन्दुस्तान के विशाल बाजार पर उनकी गिद्ध दृष्टि का जाना बिल्कुल स्वाभाविक था। हिन्दुस्तान को अपने कारखानों के माल का बाजार बनाने के लिए यह जरूरी था कि इस देश के साथ व्यापार पर ईस्ट इंडिया कंपनी की इजारेदारी खत्म कर दी जाय और उन्हें भी बेरोक-टोक इस देश के साथ व्यापार करने दिया जाय । खुद हिन्दुस्तान की अ्थनीतिक व्यवस्था में मौलिक परिवर्तन किये जायें । हिन्दुस्तान तमाम दुनिया को तैयर माल देता आ रहा था । ब्रिटिश कारखानेदारों के लाभ के लिए जरूरी था कि उसके उद्योग नष्ट कर उसे विशुद्ध खेतिहर देश बना दिया जाय । ईस्ट इंडिया कम्पनी के सौदागर मालिकों के विरोध के बावजूद १८१३ में हिन्दुस्तान में उनकी इजारेदारी ब्रिटिश सरकार ने खत्म कर दी । हिन्दुस्तान को नये ढंग से लूटने का रास्ता ब्रिटिश उद्योगपतियों के लिए खुल गया । इस तरह औद्योगिक पूंजी का युग १८१३ से शुरू हुआ और उल्नीसवीं सदी के अन्त तक रहा । हिन्दुस्तान के उद्योग-धन्घे नष्ट करने और उसे अपने कारखानों के तैयार माल का बाजार बनाने के लिए अंगरेज पूंजीपतियों ने मशीनों और राज्यसत्ता दोनों का इस्तेमाल किया । हिन्दुस्तानी तैयार माल को अपने देश में न घुसने देने के लिए उन्होंने उस पर ज्यादा-से-ज्यादा चुँगी लगाने की नीति अपनायी । बहुत से हिन्दुस्तानी तैयार माल का ब्रिटेन में प्रवेश एकदम निधषिद्ध कर दिया । साथ ही हिन्दुस्तान में आनेवाले अपने तेथार मार पर कम-से-कम चुँगी देनी शुरू की । १८१३ में ब्रिटेन में हिन्दुस्तानी छीट पर ७८ फी सदी लगती थी। १८४० के लगभग हिन्दुस्तान में विलायती रेशम और सूती कपड़े पर सिफं साढ़े तीन फी सदी चुँगी लगती थी जबकि ब्रिटेन में हिन्दुस्तानी सूती कपड़े पर १० फी सदी और रेशमी कपड़े पर २० फी सदी । भारतीय उद्योग-धन्घों को नष्ट करने के लिए ब्रिटिश पूंजीपति सिर्फ इतने से ही सन्तुष्ट नहीं हुए । उन्होंने खुद भारत के अन्दर उद्योग-धन्धों के तैयार माल पर शुल्क बैठाया। उदाहरण के लिए गवर्नर जनरल लाडे बेंटिक के समय इस सम्बन्ध में जाँच- पड़ताल से जाना गया कि जो विलायती कपड़ा भारत में बिकता था उस पर सिफं अढ़ाई प्रतिशत शुल्क लगता था लेकिन भारतवासी जो कपड़ा अपने पहनने के लिए बनाते उस पर भी १७॥। प्रतिशत शुल्क लगता था। कितने उदार और न्याँयी थे ब्रिटिश पूँजीपति इसी तरह भारतीयों के उपयोग के लिए भारतीय चमड़े से भारत में ही बने मारू पर १५ प्रतिशत शुल्क लगता था। विदेशी चीनी की अपेक्षा देशी चीनी पर ५ प्रतिशत ज्यादा शुल्क लगता था । इस तरह भारत के प्राय २३५ प्रकार के माल पर भारत के अन्दर ही फिरंगी लुटेरों ने बड़ी बेइन्साफी के साथ भारी शुल्क लगाया
User Reviews
No Reviews | Add Yours...