वक्तृत्व कला के वीज भाग 2 | Vaktrtav Kala Ke Bij Bhag 2

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Vaktrtav Kala Ke Bij Bhag 2 by उपाध्याय अमरमुनि - Upadhyay Amarmuni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्श, डर श्दे ्द वक्‍्तृत्वकला के वीज हत्थपायपडिछिन्त, . कन्ननासविगप्पिय । अवि वाससय नारी, वभयारी विवज्जए ॥। --पदसवं कालिक ८/४६ जिसके हाथ, पैर, कान एवं नाक कटे हुए हैं और वह भी सौ वर्ष की वृद्धा है--ऐसी विकृताग स्त्री का भी ब्रहमचारी को त्याग करना चाहिए । जहा कुक्कुडपोयस्स, निच्च॑ कुललभो भय । एवं खु बभयारिस्स, इत्यीविग्गहओ भयं ॥। -ददार्वकालिक ८/५४ जैसे मुर्गी के बच्चे को विलाव का सदा भय रहता हैं, चंसे ही ब्रह्मचारी को स्त्री के दारीर से भय रहता हैं । अदु साविया पवाएण, अहमसि साहम्मिणी य समखणाण । जतुकूभे जहा उवजोइई, सवासे विऊ विसीएज्जा ॥ -सुत्रकृताग ४/१/२६ अथवा श्राविका होने से मैं श्रमणो की सहथमिणी हु- यह कहकर स्त्रिया साघु के पास भावे, पर जिस प्रकार अग्नि के निकट रहने से लाख का घडा पिघलने लगता हूँ, उसी प्रकार विद्वान पुरुष भो स्त्री के सवास से द्रचित हो जाता है । प्रमायन्तु ब्रह्मचारिण , दमायन्तु ब्रह्मचारिण', शमायन्तु ब्रह्मचारिण । --तैत्तिरीय उपनिपद्‌ है/४/ ३ ब्रह्मचीरियों को चाहिये कि वे प्रमा-यथार्थज्ञात को घारण करें इन्द्रियो का दमन करें मबौर मन को वद्य मे करे !




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