जवाहर किरानावली प्रार्थना प्रबोध | Javahar Kiranavali Prarthana Prabodh

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Javahar Kiranavali Prarthana Prabodh by उपाध्याय अमर मुनि - Upadhyay Amar Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राथना-प्रवोष ] [३ परमात्मा की प्रार्थना, किसी भी स्थान पर और किसी भी परिस्थिति मे की जा सकती है । पर्‌ प्रार्थना मे आत्म-समपेण की श्रनिवाय आवश्यकता रहती है| प्रार्थना करने वाला अपनी व्यक्तिगत सत्ता को भूल जाता है। वह परमात्मा के साथ अपना तादात्म्य-सा स्थापित कर क्षता है । वस्तुत श्रात्मोरसगं के चिना सच्ची प्राथता नहीं हो सकती | इसलिए भक्तजन कहते हैं-- तन धन प्राण समज भ्रभुने इन परवेगि रिकास्यंराज। श्रथौत्‌- परमात्मा की प्राना करते मं तन, धन श्रौर प्राण॒ भी चपण क्र दृगा । यदि तुम्हारे चम॑-चन्ञ ईश्वर का सान्तात्कार करने मे समथं नहीं हैं. तो इससे क्या हुआ ? चम-चक्तु के अतिरिक्त हृद्य-चक्तु भी है और उस चह्कु पर विश्वास भी किया जा सकता है | पर- सात्मा की प्राथना के विषय मे ज्ञानी जन यही कद्दते हैं कि तुस चम-चन्तु ओं पर ही निरभेर न रहो | हमारी बात मानो | बचपन में জন तुमने बहुत-पी वस्तुएँ नहीं देखी होती तब माता के कथन पर तुम भरोसा रखते हो । क्या उससे तुम्दे कभी हानि हुई है? बचपन सें तुम साप को भी साप नहीं समभते थे | सगर माता पर विश्वास रखऊर ही तुम साप को साप समझ सके हो और साप _के दश से अपनी रक्षा कर सके हो। फिर उन ज्ञानियों पर, जिसके हृदय में साता के समान करुणा और घात्सल्य का अबिरल ज्ोत সু हिंत होता रहता है, श्रद्धा रखने से तुम्हें दवनि कैसे हो सकती हू? उन्त पर विश्वास रखन से तुम्हें द्वानि कदापि न द्दोगी, प्रत्युत लाभ ही होगा श्रत्व जब ज्ञानी जन कहते हैं कि परमात्मा है और उसकी प्रार्थना-स्तुति करन से शान्तित्लाभ होता है জী




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