रवीन्द्र - साहित्य भाग - 1 | Ravindra-sahity

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Ravindra-sahity by धन्यकुमार जैन - Dhanyakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ रवीन्द्र-साहित्य : भांग १ मन-ही-मन बोली, “कपड़े जैसे आज धोबीके घर धुलने जाते हूं, कल भी वैसे ही जायेंगे, मैले कपड़ोंके गदंभ-बाहनको तो समझ लिया है, पर उसका विज्ञान-बाहन नहीं समझमें आता ।' आछूके छिलके उतारनेवाली नशीन देखकर वह दंग रह गई; बोली, “दम-आलू बनानेकी बारह-आना दिक्कत सिट गई ।” बादमें सुननेमें आया कि वह फूटी डेगची और केटली वगैरहके साथ किसी अन्धी-कोठरीमें पड़ी-पड़ी सड़ रही है । मकान बनकर जब बिलकुल तैयार हो गया, तब-कहीं उस स्थावर चीजसे शर्मिलाके रुके-हुए स्नेहके उद्यमको छुटकारा मिला । सहूलियत यह थी कि ईंट-काठकी देहमें धैय॑ं अटल होता है। सामान धरने-उठाने और सजाने-लगानेमें दो-दो नौकर हाफ उठे, दो-एक काम छोड़कर भी चलें गये। कमरोंकी सजावटका काम चल रहा है शश्यांकके लिए । बैठकमें वह आजकल लगभग बैठता ही नहीं, फिर भी उसीकी थकी-हुई रीढ़को आराम पहुंचानेके लिए तरह-तरहकी फैदनकी कुरसियाँ मँँगाई और सजाई जा रही हैं। फूलदानी एक-आध नहीं, कमरे-कमरेमें छोटी-छोटी तिपाई और टेबिलॉपर फूलदार झालरदार टेबिलपोद और उनपर फूलशुदा फूलदानी रखी हुई हें। सोनेके कमरेमें दिनमें आजकल शक्षांकका समागम बन्द है, क्योंकि उसके आधुनिक पब्चाड़में रविवार सोमवारका यमज भाई बन गया है। और-और छुट्टीके दिन, जब कि काम बिलकुल बंद 'रहता है तब भी न जाने कहाँसे वह काम दूं ढ़ निकालता हे, और आफिस-रूममें जाकर प्लैन बनानेका चिकना कागज या खाता-बही लेकर बैठ जाता है। फिर भी पुराने नियम चालू हूं । मोटे गद्ददार सोफाके सामने मखमलके कामदार स्लीपर रखें रहते हें। पहलेकी तरह ही पानदानमें पान लगाकर टेबिलपर रख दिये जाते हूं। अलगनीपर सिल्कका कुरता और चुनी-हुई. घोती ठँगी रहती है। आफिस-रूममें हस्तक्षेप करनेके लिए हिम्मतकी जरूरत है, फिर भी शशांककी अनुपस्थितिमें वह झाड़न हाथमें लेकर वहाँ घुस जाती है। वहाँ रहने-लायक और न रहने-लायक चीजोंके व्यूहमें सजावट और सिलसिलेका मेल बिठानेमें उसका उद्योग और अध्यवसाय रोके नहीं रुकता ।




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