भारत दर्पण ग्रंथमाला [ग्रंथ संख्या ३] | Bharat Darpan Granthamala [Granth Sankhya 3]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हीरानन्द सा? का ध्यान बरावर इस ओर रहता था कि राज-कर्मचारी प्रजा सा शोपण करनें न पावे। ऐसी नीति के फलस्वरूप, खेनीवारी को हो नही; उद्योग-धन्वों तथा. कला-कौणल को भी प्रोत्साहन मिला! और भारतवर्प के देशान्तगंत व्यापार के ही नही, विदेशी व्यापार ये भी क्षेत्र का विस्तार हुआ। दिल्‍ली मे कोहनूर* और तस्तताऊस* को देखकर विदेशी यात्रियो की चकाचौधघ तो लगती ही, उन्हें यह भी स्वीकार करना पड़ता कि और देशो की तुछना मे, भारतवर्ष विशेष घनवात्य-पूर्ण और सुखी है । इस देश के राजनी तिक-गगन में बाद उमडने वाले थे , शान्ति का स्थान अगान्ति, सख-संपद का स्यान दुख-दारिद्रथ ले लेने वाला था , पर उस अध्याय का आरभ होने मे--औरंगजेव के तसूत॑ पर बैठने में--अभी प्राय. छः साल को देर थी। भाग्य-परीक्षा के लिए पटना-जैसा स्थान चुन कर हीराततत्द ने वुद्धित्ता दिखाई थी। विहार-प्रान्त की राजवानी तो यह था ही, चाणिज्य-व्यवसाय की दृष्टि से भी यह महत्त्वदूर्ण था । यहा से वाहर जाने वाली वस्तुओ* मे शोरा, गुड, चे नी, छीट, लाह, सोहागा कस्तूरी, अफीम भर हल्दी प्रधान थी। पटने की छीट दूर-टूर तक मगहूर थी | वहा कस्तुरी भूटान से आकर विकती और सोहागा तिव्वत से । विदेशी व्यापारियों की ओर से इघर थोरे की खरीदारी वड़े पैमाने पर होने लगी थी। डचो और फरासीसियों के वाद जब अंगरेज इस मैदान में आये, तब उतको ईस्ट इडिया कपनी को अपने संचालकों से आदेश मिला कि व्यापार में जो पूजी लगे, उसका कम सें कम आधा थोरे की खरीदारी में लगाया जाय और यह खरीदारी पटने मे ही की जाय ।




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