कवियों का विवेचनात्मक अध्ययन भाग २ | Kaviyo Ka Vivechanatmak Adhyyan Bhag II

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Kaviyo Ka Vivechanatmak Adhyyan Bhag II by सुदर्शन कुमार - Sudarshan Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हुरिइचस्द्र 3 विदेचनात्मक श्रध्ययन [ है घ्रार घिपय से है, मंगलाचरण से नहीं । चर््ध माच नगर के राजा की पुन्नी विधा से जब सभी राजकुमार परास्त हो जाते हैं तब काचीपुर के राजा गुणासिन्घु के पुत्र 'सुन्दर' को युलाया जाता है वह घ्राकर हीरा मालिन के यहाँ ठहर जाता है श्रौर इसी मालिन से एक हार गुंया फर विद्या के थास भेज देता है । वह कामपीडित हो जाती है, दोनों का गन्धर्वे-विवाह सो हो जाता है । इसमें तीन भ्रंक हैं, पहले में ४ गर्भाजधु, दूसरे में ३ श्रौर सोसरे श्रंक में ३ हैं । भरत-वाक्य नहीं है। यह नाटक माना जाता है । घनजयविजय--भारतेन्दु ने इसका श्रनुवाद सन्‌ १८७३ में फिया। यह एक “व्यायोग' है । इसका मृूलकवि 'काचन' माना जाता है। यह चौररस-प्रघान एकाड्ी है । घटना इस प्रकार है कि पाण्डवो ने झपना १३वाँ श्रज्ञातवास का वर्ष विराट के यहां व्यतीत किया, श्रन्तिम दिन श्रचानक फौरवों ने विराट को गौएं हर लीं, श्रौर उन्हें श्रर्जुन चापिस लाये थे । इसी हुप के श्रवसर पर राजा विराट ने श्रपनी पुत्री उत्तरा का सवघ श्रर्जुन के पुत्र ्रभिमन्यु से फर दिया था । इसमें मंगला- चरण, भरतवाक्य श्रादि सब-कुछ है । एक ही चीररस पुर्ण ग्रक में रचा सपा है। इसमें पराभार विशेष है, एक ही दिन की घटना फा चर्सन है । पाखडविडम्चन--यह कृष्णमिश्र के 'प्रवोधचन्द्रोदय' नाटक के सुतीय श्रक का भ्रनुवाद है जो सन्‌ १८७२ में भारतेन्दु जी ने किया था । इसमें गद्थ-पद्य दोनों पाये जाते हैं। इस नाटक में शान्ति भ्रपनी सखी करुणा के साय श्रपनी माता श्रद्धा की खोज में निकलती है शरीर जब शान्ति ने दिगस्वर, सिद्धान्त श्रौर भिक्षुक चुद्धागम के साय तमोणएणी अद्धा को देखा, चहु श्रत्यन्त दुखी हुई । वाद में इन तीनों में विवाद हो जाता है । श्रावेद में श्राकर सिद्धान्त नें दिगम्वर पर श्राक्रमण किया परन्तु भिक्षुक ने वीच में पड़ कर शान्त कर दिया । कापालिनी श्रद्धा मिक्षुक श्रौर दिगम्वर दोनों फो श्रालिंगन करती है; वे दोनो श्रद्धा की जूठी मदिरा पीते हैं, थे दोनो भक्ति महारानी के साथ श्रद्धा श्रौर घर्म




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