महाकवि आचार्य विद्यासागर ग्रन्थावली भाग - 1 | Mahakavi Aachary Vidhasagar Granthavali Bhag - 1

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Mahakavi Aachary Vidhasagar Granthavali Bhag - 1  by आचार्य विद्यासागर - Acharya Vidyasagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शत रििििदयन्ल्सममध्यमणपम्ममथसस्वामसससममययिसिथिसियससिथिससससयमिययपियसथ्यस्यग्स् बी शिथिलाचार का निषेध करते हुए कहा है कि नग्न होने मात्र से मोक्ष मार्ग | नहीं होता है क्योंकि नग्न तो पशु भी होते हैं यथा - न हि कैबल्य साधन केवलं यथाजातप्रसाघनम्‌ चेनन पशुरपि साधन ब्जेदव्ययमञज्जसा धनम्‌ ॥78॥। श्रमण का परमात्मा से अनुराग किए बिना कल्याण नहीं हो सकता है । कवि ने कहा है कि जो परिग्रहों को त्यागकर, इन्द्रियों को वश में कर अपनी रलत्रय रूपी खेती को बिशुद्ध भावों से सिचन करते हैं, ऐसे साधुओं की मैं वन्दना करता हूँ । इस प्रकार इस काव्य में अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध भावों को प्राप्त करने की प्रेरणा दी है । शब्द संचय करने में कवि ने विश्वलोचन कोश का प्रयोग किया है । श्लोकों में शब्दों की कठिनता दृष्टिगोचर होती है । काव्य में अनुप्रास, श्लेष तथा यमक प्रमुखता लिए हुए हैं । क्वचित्‌, कदाचितू, उठ्पेक्षायें अभिव्यंजित होती हैं । पद लालित्य ध्वनि तथा अर्थगौरव पदे-पदे विद्यमान है । यह ग्रन्थ आर्याछन्द में लिखा गया है । पाँच श्लोकों में मंगलाचरण है, जिसमें वर्धमान स्वामी, भद्रबाहु, कुन्दकुन्द आचार्य, स्वर गुरु आचार्य ज्ञानसागर एवं सरस्वती का स्तवन किया है । 94 श्लोकों में कवि ने श्रमणों को आध्यात्मिक दृष्टि से हेय-उपादय का उपदेश दिया है । अन्त में 100वें श्लोक में अपनी लघुता एव 101वें श्लोक में गुरु ज्ञानसागर एवं स्वय का नाम श्लेषात्मक ढ़ग से निबद्ध किया है, 6 श्लोकों में प्रशस्ति दी है, जिसमे कहा है कि ज्ञानसागर के शिष्य विद्यासागर ने विक्रम सम्बत्‌ 2031 वैशाख शुक्ला पूर्णिमा को यह काव्य पूर्ण किया । इस प्रकार कुल 107 छन्द इस काव्य ग्रन्थ में हैं । प्रशस्ति के पद्च में छन्द भिन्‍नता भी है, अत. इन्हें ग्रम्थ की मूल संख्या में न जोड़कर अलग से दिया है (101 + 6) मूल श्लोकों का अन्वय एवं वसन्ततिलका छन्द में हिन्दी पद्यानुवाद कवि ने स्वय किया गया है । यह अनुवाद-शब्दानुवाद न होकर भावानुवाद है । यह काव्य ग्रन्थ पूर्व में कई स्थानों से प्रकाशित किया जा चुका है । निरज्जन शतकम्‌ जैसा कि इस ग्रन्थ का नाम है वैसे ही अज्जन से रहित शुद्ध आत्म तत्त्व का वर्णन करने वाला है । इसमें कवि ने स्वयं के द्वारा स्वयं को उपदेश दिया है, क्योंकि एक आदर्श आचार्य पर- कल्याण के साथ-साथ स्वयं के कल्याण में भी निहित रहते हैं । कवि भी एक सम्यक्‌ आदर्श आचार्य परमेष्ठी हैं । कवि ने संसार हक को विपदाओं का कारण माना और निजपद को ही विपदाओ से रहित कहा । यथा - परपदं हापदं विपदास्पदं निपदं च निरापदम्‌ इति जगाद जनाब्जरविर्भवान्‌ हानुभवन्‌ स्वभवान्‌ भववैभवान्‌ ।3॥ 1! शुद्ध निरंजन स्वरूप को प्राप्त करने के लिए कवि ने भगवान की भक्ति




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