अकिंचित्कर | Ankichitkar

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Ankichitkar by आचार्य विद्यासागर - Acharya Vidyasagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अकिचित्कर सम्यग्दर्शन की सहिसा-- न सम्यक्त्वसमं किच्चित्‌, त्रेकाल्ये श्रिजगत्यपि । श्रेयोड्लेयद्व सिथ्यात्वसम॑ नान्यत्तन्‌ भृतास्‌ ॥३४। ( रत्नफरण्डक्रावकाचार ) श्राचा्यं समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डश्रावकाचार मे सम्यग्दशंने की महिमा सक्षेप मे इस प्रकार व्यक्त की है-तीन काल व तीन लोक मे यदि कोई सुखप्रद वस्तु है तो वह सम्यक्त्व तथा दु खप्रद तो मिथ्यात्व । जब हम सभी सुखाभिलाषी भ्रौर दु खभीरु है तब हमारा प्रयास सुखप्रद वस्तुश्रो के लाम तथा दु खप्रद वस्तुओं के प्रभाव के प्रति श्रावश्यक है । सुखप्रद वस्तुभ्रो के लाभ के लिए समुचित साधन श्रापेक्षित है, क्योकि कार्य की उत्पत्ति के लिए सभी दाशैनिको ने कार्य-कारण की व्यवस्था मानी है। उन्होने कहा-कार्य बिना कारण के उत्पन्न न॒ही हो सकता ।२.“श्रत. हितकारी श्रौर श्रहितकारी कार्यो का उत्पादन किन-किनि कारणोसे हो रहा है यह समना व हितकारी कायं के प्रति उद्यम करना श्रावश्यक है । जहाँ तक समभने की बात है वह्‌ हमे मात्र स्वय की बुद्धि से नही समना बरिक वह्‌ जिनेन्द्र १ সদ) ण च कारणमन्तरेण कज्जस्सुप्पत्ती कहि पि होदि, अ्रणवर्टाणादो। घद६पृ १६६। “(ब) कारणेण विणा कज्जुप्पत्तिविरोहादो । घ्‌ ७पृ ७०।




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