भगवान श्री कृष्ण | Bhagwan Sree Krisana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( रह २७ मील उत्तर, हुछा था। संसार की साया मसता से सुँद सोड़कर इस राजकुमार ने बेराग्य ले लिये और एकदम वद्ादीन होकर, संसार का सब धन्धन तोड़कर आत्मचिस्तन करने लगे बुद्ध की तरदद इनका भी व्यादद हुआ था । इनको एक कन्या भी थी | पर उनके समान लम्बी चौड़ी यात्रा कर घस का प्रचार करते वे नहीं घूसे थे । इन्होंने वास्तव में ११ शिष्यों को ही नपदेश दिया था और ७९ ब्षे की उम्र में निवांल॒ को प्राप्त हुए थे | जैनी कथायें इतनी चिस्वृत और असस्भावित सालूम होती हैं. कि उनमें से सार-तत्व निकाल लेना कठिन दो जाता है । उनका विश्व।स है कि तीथेकर जैन ध्ं के अन्तिम द्रष्टा 'और उपदेशक हुए हैं । २२ योनियों में जन्स लेने के बाद वददी र४ वीं योनि में पूर्णत्व को प्राप्त बद्ध मान सहावीर हुए । उनका प्रथम जन्म ऋषभ यानी सुनदले सांड के रूप में हुआ था । तीथेंकर का अथे है साधु । दमारे मददाबीर जी पू्णत्व को प्राप्त चद्दी साधु थे । “जिन” का अर्थ है जीतने वाला अर्थात्‌ जिसने जनता की विचारधारा पर विजय प्राप्त करली है । इसी शब्द से “जैनी” तथा जैन धर्म बना | इस समय भारव में लगभग १४ लाख जैनी दें । मेवाद, गुजरात, ऊपरी सलाबार तट आदि में इनकी बहुलता है तथा विशेष कर धनी व्यवसायी ससाज में इस घर्सें के अल्लुयायी ।मलेगे । राजपूताना का माइन्ट आवू, गिरनार, शन्नुजय तथा एलोर इनके प्रसिद्ध तीथेस्थान हैं । शत्रु जय के जैन मदिर की ससार के सब सुन्दर मदिररों सें गणना होती है । मद्दावीर बुद्ध के समकालीन थे । दोनों धर्म्मों के प्रचारकों ने त्याग तथा सिच्ु घुष्ति को प्रमुख स्थान दिया । प्रबल सठों द्वारा दी घस्स का अचार दोता था । तीथेकर के बाद, सब




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