जीवन सिद्धांत | Jivan Siddhant
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
389
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)रु जीवन सित्तास्त
प्राचीन दर्शन के प्रति यनका यह दृष्टिकोण पुनरस्थानवादियों और अन्य श्रद्धालुजनों
की उपासना-पद्धति से शिक्ष है ।' * 7
वैज्ञानिकों के इस परमाएु सिद्धास्त मे जगत और समाज के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि
अपनाने में शुवल जी की सहायता की है ।
णुक्ल जी मे विज्ञान की ईथर सम्भस्धी व्यार्या का थी विस्तृत विवेचन किया!
है, * * जिससे खाली कोई जगह नहीं, *” जो सर्वश्र अखण्ड और एकरस है ।” * उन्होंने
जगत् के उत्पत्ति -सिद्धांत का भी विशद निरूपण किया है ।” * किन्तु विज्ञान का वह
सिद्धांत शिसने उतके चिस्तन एवं जीवन को सर्वाधिक प्रभावित किया, ब्रह् डार्धिन का
विकास का सिद्धांत है। “डाबिन ने इस धारणा का उन्मूलन किया कि पणुओं तथा
वनस्पत्तियों की प्रजातियाँ किसी भी प्रकार अन्त: सम्बद्ध नहीं हैं, वे सांयोगिक मात्र हैं,
'ईण्वर द्वारा सजित हैं' और सदा अपरिवतंतीय हैं ।'** उन्होंने प्रजातियों की परि-
वर्तनीयता तथा उनकी निरन्तरता स्थापित करके, पहली बार जीव विज्ञान को वैज्ञानिक
भाघार प्रदान किया !
आचार्य शुबल ने डॉबिन के विकास-सिदात का विस्तृत निरूपण किया है ।
उनके विवेचन के अनुसार जीवोत्पत्ति का आरम्भ मीनरा और अभीना के समान अत्यन्त
सादे ढाँचे के कलल भिन्दु रूप अणु जीवों से हुआ ।” * इन अणु जीवों के शरीर का प्रत्येक
भाग समान रूप से बाह्म भूतों के भिन्न-भिन्न प्रकार के सम्पर्का को ग्रहण करता था
और प्रत्येक भाग प्रत्येक व्यापार कर सकता था 1” * किन्तु असंख्य पीढ़ियों के पक्चात
धीरे-धीरे यह हुआ कि जिस भाग पर स्थिति के असुसार संपर्क अधिक हुआ उसमें
अभ्यास के कारण संपर्क अधिक ग्रहण करने की विशेषता आ गई आउृति में भी
परिवर्तन हुआ ** और इस प्रकार इन्द्रियों का विधान हुआ। इन्द्रियों के विकास की
विज्ञानसम्मत विवेचना अत्यन्त स्वच्छ रूप में उन्होंने की है ।
भागे चलकर उन्होंने बतलाया है कि अत्यन्त क्षुद्र जन्तुओं का शरीर खण्डों में
विभक्त नहीं होता । इन्हीं से बहुखण्ड जीवों का विकास हुआ जिनकी शरीर-रचना बहुत
से जोड़ों थे मिलकर जात पड़ती है, जैसे कचुए, जक इत्यादि ।*” विकास परम्परा के
अनुसार इन्हीं बिना रीढ़ वाले जन्तुओं से ही क्रमशः रीढ़ वाले जन्तुमों की उत्पत्ति हुई । *”
इसी प्रकार जलचर जन्तुओं से ही स्थल 'चर जन्तुओं का विकास हुआ ।* * इस दोनों के
बीच में उभयचंर जम्तुओं का विकास हुआ, जैसे मेंढक ।” ” उभयचारी जन्तुओं से ही
विकास-परम्परा द्वारा सरीसूपों की उत्पत्ति हुई ।” इसी वर्ग वाले पंजे वाले सरीसूपों
से पक्षियों की उत्पत्ति हुई ।** आगे चलकर विक्रास-परम्परा में इन्हीं से स्तन्प जम्तुओं
की उत्पत्ति हुई । * कुत्ते, बिल्ली, हाथी, घोड़े, बन्दर भौर मनुष्य आदि हसी धर्ग के
छन्तर्गत भाते हूँ ।*
शुवल जी का स्पष्ट कथन है कि बिता पुछ के चन-मनुष्यी से मिलते-जुलते
पुर्वजों से ही क्रमश: विकास-परम्परा द्वारा मनुष्य का प्रादुर्शभाव हुआ जो शुमण्डल के
ननकनणथपसररणद स्पा निधन सा शाप पा दनय
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