वांगमय विमर्श | Vangamay Vimarsh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
31 MB
कुल पष्ठ :
502
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(४)
स्यावदारिक तान + जिसे शाम्कार 'कांवासंसित उपदेश कहते हैं । ह'
दखें प्राचीन यंथों में बहुत हो झच्छ दंग से समझाया गया है । संमित
या रीति तीन प्रकार की सानी गई है-प्रसुसंसित सुददसंमित ओर
कांतासंमित । प्रभसंसित का साथ हया स्वामी की रीति । जिस प्रकार
स्थामी सेवकों को किसी काय के फरने था न करने की औाज्ना देता है
इसी प्रकार जा रचना थिधि मोर सलिपयथ का ही विधान करनेवाली दो
उसे प्रभसंसित उपडेदा देनियालों कटे गे । एसी रीति से उपदेश देनेवाले
हूं चुद प्यार शाय्य । सुनतसंसित का अभे है सित्र की रीति । मित्र
उपदेश दूते समय झलक उदादस्ण सार इ्रांत प्रस्तुत करके समसा-
युनाकर काम सिकानता है । इसी प्रकार जो रचना उदाहरण छोर
चष्टांती छारा थिपय का स्पर्टीकरण करती है चठ सददसंमित उपदेश
द्सेचाली कहीं जाती है । इतिहास-घंघ ऐसे ही होते हू। इसका बढ़िया
उदाहरण है महाभारत । कांता उपदेश या कार्य-लापस विधि-निपेध
या इ््रां-मुसन सीखे नहीं करती घक्कता से केवल इंगित करती है ।
घ्माचरश्यक वस्तु का केवल संकेत कर देती ह। इसी प्रकार जो रचना
संकेत द्वारा साध्य का ज्ञान कराती हू उसे कांतासंमित उपदेश देसे
वाली रचना कहते हैं । काव्य इसी प्रकार की रचना है । काव्य स्पष्ट
रूप से कोई घात नहीं कहता । वह शपना छासिमत संकेत द्वारा व्यक्त
करता हैं । जसे-+नरामचर्तिमानस” का साध्य यह हैं कि रास की
भाँति लोकोपकारादि करना चाहिए« रावण की सॉति छाचरण न
करना चाहिए । ग्रह संफेत से ही वतलाया गया हूं । ऐसा कहने से कई'
वात रपप्र हो जाती हैं--पहली तो यह कि काव्य का तथा वेद; शाखर)
पुराण; इतिद्दास झादि का लद्य ण्क ही है; केवल प्रस्थान-सेद है ।
कई किसी सागे से वहाँ पहुंचता है छोर कोई किसी से । दसरी यह
कि वेद; शास्त्र ञादि का प्रभाव सले दही किसी पर न पड़े, पर काव्य
का छवश्य पढ़ता है। इसका कारण यही है कि काव्य हृदय की
भाव-पद्धति पर चलता है. तथा अन्य रचनाएँ घुद्धि की तके-पद्धति
यर | साव-पद्ति का प्रभाव श्त्यधिक होता है; तकं-पद्धति का बहुत
# जिज्ञासो: सुन्दरीरोत्या काव्य॑ समुपदेशकृत् |
ऐिकामुष्तिकादेयत्सो८यमन्यार्थ.. उच्यते ॥--साहित्यसार ।
1 मम्मयाचाय ने काव्यप्रयोजन की सूची येँ दी है---
काव्य यशसे '्रथंक्ृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये ।
सद्यः परनिद्नंतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥|--काव्यप्रकाश |
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