निग्रंथ प्रवचन | Nigranth Pravchan

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Nigranth Pravchan by श्रीचंद सुराना - Shrichand Surana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ४ ) महावीर के मागें से विमुख होकर ससार ने वहुत कुछ खोया है । पर यह प्रमप्रता की वात हैं कि वह फिर उसी मार्ग पर चलने की तैयारी में है। ऐसी मवस्था में हमे यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि इस मार्ग के पथिकों के सुभीते के लिए उनके हाथ में एक ऐसा प्रदीप दे दिया जाय जिससे वे भन्नान्ति पूर्वक अपने लक्ष्य पर जा पहुँचें । बस, वही प्रदीप यह 'निम्नन्थ-प्रवचन' है । कहने की आवश्यकता नहीं कि भगवान महावीर के एस समय उपलब्ध विशाल वाड्मय से इसका चुनाव किया गया है, पर सक्षिप्तता की मोर भी इसमें पर्याप्त ध्यान रखा है । भध्यात्म-प्रघानता--यह ठीक है कि भगवान महावीर ने आध्यात्मिकता मे ही जगतु-कल्याण को देखा है और उनके उपदेशो को पढने से स्पष्ट ही ऐसा प्रतीत होने लगता है कि उनमे कूट-कूठ कर आध्यात्मिकता मरी हुई है। उनके उपदेशो का एक-एक शब्द हमारे कानों में आध्यात्मिकता की 'मावना उत्पप्न करता है । ससार के भोगोपमोगों को वहाँ कोई स्थान प्राप्त नहदी है । आत्मा एक स्वतत्र हो वस्तु है और इसीलिए उसके वास्तविक सुम और सवेदन आदि धर्म भी स्वतत्र हैं--परानपेक्ष हैं। अतएव जो सुख किसी बाह्य पस्तु पर बवलम्वित नही है, जिस ज्ञान के लिए पौदुगलिक इसन्द्रिय आदि सापनों की आवश्यकता नहीं है, वही आत्मा का सच्चा सुख है, वहीं गरनारवाभाविक ज्ञान है। वह सुख-सवेदन, किस प्रकार, किन-किन उपायों से, पिसे जौर कब प्राप्त हो सकता है ? यही भगवान महावीर के चाड मय मा मुत्य प्रतिपाद्य है। अतएव इनकी व्याख्या करने मे हमारे जीवन के सभी-झ्षेप्रो की ब्यास्या हो जाती है और उनके आधार पर नैतिक, सामाजिक, आपिक, आदि समस्त विषयों पर प्रकाश पढ़ता है। इसे स्पष्ट करके पदाहरणपूर्वरु समझाने के लिए चिस्तृत विवेचन की आवश्यकता है, और एम यहाँ प्रस्तावना की सीमा से आगे नहीं वढना है । पाठक 'निग न्य-प्रवचन' मे यश्रतय इन विपयों की साधारण झलक भी देख सकेंगे । निप्र स्य-प्रयदत विपय-दिग्दर्शन--'निर्मन्थ-प्रवचन' अठारह अध्यायों में समाप्त हुआ है । इन लघ्यायो में विभिन्न विपयो पर मनोहर, जान्तराह्लादजनक और शान्ति-प्रदायिनी सूक्तियाँ सगृहीत हैं । सुगमता से समझने के निए यहाँ एन लप्यायों मे य्णित वस्तु का सामान्य परिचय करा देना आवश्यक है, सौर यह इस प्रसार है...




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