जैनधर्म - मीमांसा भाग - 2 | jain Dharam Mimansa Bhag - 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२; चोथा अध्याय पहिंले मति और श्रतज्ञान कुमति और कुश्चुत॒ कहलाते हैं । जहां सम्यग्दन और मिध्यादर्शन .का मिश्रण रहता है वहां सम्यग््ञान और मिध्याज्ञान का भी मिंश्रण + माना जाता है । सम्यग्दरशीन से हमें वह दृष्टि प्राप्त होती है जिससे बाझदष्टि से जो मिध्याज्ञान है वह्द भी कल्याण का साधक होजाता है । एक आदमी सम्यर्दष्टि है किन्तु अँखें। की कमजोरी से, प्रकाश की कमी से या दूर होने से रस्सी को सप समझ लेता है तो व्यवहार में उसका ज्ञान असल्य होने पर भी धमशास्त्र की दि में वह सम्पग्ज्ञानी ही है, क्योंकि इस असत्यता से उसके कल्याण मांगे में कुछ बाघा नहीं आती | यह ता एक साधारण उदाहरण है, परन्तु इतिहास, पुराण, भूवृत्त, स्वग नरक, उमोतिषर, वैद्यक, भौतिक विज्ञान आदि अनेक विषयों पर यहीं बात कही जा सकती है। इन विषयों का सम्यर्दष्टि का अगर सचज्ञान है तो मं बह सम्पग्ज्ञानी है. और मिध्यज्ञान है तो भी वह सम्पग्ज्ञानी है | तात्पर्य यह है कि जिससे आत्मा सुखी हो अर्थात्‌ जो सुख के सचे मांग को बतढाने वाला है वही सम्यग्ज्ञान है । जिसने सुख के माग को अच्छी तरह जान छिया है अथीत्‌ पूर्णरूप में अनुभव कर लिया है वहीं केवली या सत्रेज्ञ कहलाता है । आत्मज्ञानकी परम + ज्ञानावुवदिन मत्यज्ञान श्रुताज्ञानविभज्नज्ञानेपु मिथ्याइष्टि: सासादनसम्य- ग्दुष्टि्चीस्त आमिनिबोधिक श्र गावधिज्ञानेषू असंयतसम्यग्दु्रबादीन ”” । सर्वा- थसिद्धि १-८ | मिरठ॒दये सम्मिस्स॑ अण्णाणतियेण णाणतियमेव | गो जी. 1३०]




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