सामधेनी | Saamdheni

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रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्‍बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।

'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तिय का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।

सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया ग

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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९१1 सामधेनी २ अपनी हड्डी की मशाढछ से हृदय. चीरते तम का सारो रात चले तुम दुख भेठते कुढिश निमेम का । एक खेय है शेष किसी विधि पार उसे. कर जाओ वह॒ देखो उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का। आकर इतना पास फिरे वह सच्चा शूर नहीं है थक्रकर बेठ गये क्या भाई मंजिल दूर नहीं हैं । डे दिशा दीप हो उठी प्राप्तकर पुण्य --प्रकाश तुम्हारा छिखा जा चुका अनछ-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा। जिस मिट्टी ने छहू पिया वह फूढ खिलढायेगी हो अम्बर पर घन बन छायेगा हो. उच्छवास.. तुम्हारा । और अधिक ले जाँच देवता इतना क्र नहीं है । थक ३ कर बंठ गये क्‍या भाई मजिल दूर नहीं है । १९४३ |




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