जागरण | Jaagaran

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Jaagaran by मन्मथनाथ गुप्त - Manmathnath Gupta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२६ जागरण जैसे उसके मातृत्व के शवाधार पर एक भ्ौर कील ठुक गई । पर कहना तो था ही । उससे बचत कहां थी ? रायसाहब का कड़ा “चेहरा याद झ्राया । किसी भी प्रकार रायसाहब मान नहीं सकते थे । वे बड़े क्तेव्यपरा- यण पिता ग्रौर पति थे, पर इन सब बातों से ऊपर वे राजभक्त थे । उनकी धारणा के अ्रनुसार श्रंग्रेज़ वतंमान युग के देवता थे । एक श्रंग्रेज़ बुरा हो सकता था, दस श्रंग्रेज़ बुरे हो सकते थे, पर सारे भ्रंग्रेज़ मिलकर कभी बुरे नहीं हो सकते थे । रायसाहब को समभाना श्रसम्भव था । इसीलिए यह होना ही था । जब दोनों के बीच की चुप्पी बिल्कुल श्रसहनीय हो गई, तब उषादेवी ने कहा--बेटा, मेरा जी झब घर में नहीं लगता । तू मुझे कहीं तीरथैयात्रा के लिए ले चल । राजेन्द्र समभ नहीं पाया कि यह किस ढंग का आक्रमण है । उसकी सतकंता कूछ ढीली पड़ गई। बोला--मां, तुम कैसी बात करती हो ? काशी से बढ़कर कौन-सा तीथ॑ है ? यह नगरी तो भगवान शिव के त्रिशयुल पर बसी है ॥ “बेटा, मेरा मन काशी से ऊब चुका है। अरब मेरा मन घर में नहीं खगता । राजेन्द्र ने देखा, मां सचमुच दुखी है । उसकी सारी सतकंता जाती रही, बोला--मां, तुम चर्खा काता करो । इसमें खूब मन लगता है । सारे दुख भूल जाते हैं। चख की श्रावाज़ में कुछ ऐसी भधुरता है कि मन रम जाता है । जाने कहां-कहां के विचार झ्राते हैं । जिन बातों को कभी देखा नहीं, सुना नहीं, सोचा नहीं, यहां तक कि पढ़ा भी नहीं, वे बातें प्रत्यक्ष होकर सामने श्रा जाती हैं । मन इतने ऊंचे सुर में बंध जाता है कि इच्छा होती है बस चर्खा कातता चलूं, कातता चलूं श्रौर कभी न रुकू । उषादेवी की श्रांखों से ग्रांसू की दो बूंदें लुढ़क पड़ीं । जल्दी से उन्हें पोंछकर हंसती हुई बोलीं--बेटा, तु सभाश्रों में कही जाने वाली बातें मुझसे 'भी करने लगा । -'नहीं मां। किसी सभा में किसीने यह बात कभी नहीं कही । वे




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