करवट | Karwat

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Karwat by अमृतलाल नागर - Amritlal Nagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बाद में पर 1 सीन चार लाख की हैसियत वाली मननो दीबी अपनी इकलौती कन्या के लिए पिछले तीन वर्षो से बिरादरी मे ऐसा वर देख रही थी जो कायदे का हो और जिसे घर दामाद बनाकर रक्खा जा सके । तनकुन की जन्मपथी चुन्नो से मिल तो पहले ही से गई थी पर उस समय ग्रह नक्षत्र कुछ ऐसे उल्टे-पुल्टे थे कि मरनो बीबी को मुसद्दीमर्ल से समधियाना जोड़ना अच्छा न लगा। कभी उनकी जन्मपत्नी भी मुसद्दीमल से मिली थी मगर मुसद्दीमल के वाप उस समय चूकि बड़े आदमी थे और किसी बड़े घर का बेटी से अपना बेटा ब्याहना चाहते थे, इसलिये ब्याह न हुआ । आजकल जब मुसद्दीमल फेरीवाले बजाज हो गए हूँ तो उनके लड़के से कौन नाता जोड़े । उघर तो तनकुम का ब्याह भी हो गया और इधर मन्‍नो बीबी को अपने मन का दामाद अब तक न मिल सका । हारे को हरिनाम की तरह अचानक तनबुन के बड़ा आलिम हो जाने का शोर सुनकर मन्‍नी बीबी ने एक झटके में यह निश्चय किया कि तनकुन भले ही एक बार ब्याहा जा चुका हो मगर उसे ही घर दामाद बनाएगी । मुसद्दीमल को रुपयों के रोव से रिझाना आसान है, यह सोचकर घर की डोली पर बैठकर चल दी । दो लत भी साथ चले मुसहीमल राजी हो गए । खाली बहुआ (मा) को ही आपत्ति थी कि लड़का ससुराल मैं रहेगा । मुसद्दीमल ने अपनी बात ही रक्खी। खुशियों से भरे तनकुन उप बंसीधर मे घर जाकर मां बाप के पर छुए । पिता ने उसके कीर्तिशाली होने की बात को कम और मरनो बीबी के आगमन और प्रस्ताव को बहुत महत्व दिया। तनकुन का भेजा 'घढ गया । वह बोला : “मेरा ब्याह हो चुका है । मैं अब दूसरी शादी करके किसी का घर जमाई नही बनूगा । मैं इस मामले मे अपनी ही मर्जी से चलूंगा।” मुसद्दीमल सुनकर पागल हो गये । मारपीट पर आमादा हो गए। तनकुत ने उसी समय घर छोड़ दिया । भाग्य से उस्ताद ने रहने की जगह दिला दी । इनाम मे पाये रुपयों मे से कुछ कपड़ो मे खर्चे बयों कि घर से कुछ लेकर चला नही था । बहरहाल घर छोड़ने के वाद भी तनकुन ने पूरी दृढ़ता के साथ अपना भविष्य अपनी बनायी योजना के अनुसार ही ढालने का निश्चय किया । तनकुन के चार शिप्यों में एक तो उसकी आयु से बड़ा, दो बच्चों का बाप, शिवरतने सिंह था । फारसी का प्रारंभिक अम्यास उसे था लेकिन बाद में छूट गया । अब सरकारी कामकाज में फारसी का बोलबाला देखा तो सोचा इसे सीखे ही डालें । वह अपने छोटे भाइयों से अलग सीखता था । वसीधघर की अंग्रेजी पढ़ने की इच्छा जानी तो बोला, इसे भी सीख लेना चाहिए । यह आने वाली सरकारी जबान है । नजरबाग के पास ह। फादर जेकिन्स का अंग्रेजी स्कूल था । नीची मानी जाने वाली हिन्दू मुसलमान जातियों के आठ नये ईसाई लड़के थे जिनकी पढ़ाई के लिए 25 रुपया मिशन देता था। इसके अतिरिक्त अंप्रेज-ईरानी खून का एक लड़का डगलस था, एक जौहरी का बेटा सुभागचन्द, एक पंडित किंदानलाल कौल भौर अब यह दो और भी जुड़ गए । पांच रुपये फीस थी,। कहां तो रुपये बाहर गण्डे में फारसी पढ़ाने वाले अच्छे से अच्छे उस्ताद मिल जाते थे, कहां पाँच रुपये । बहुत थे । मसल मे मिशन ने लखनऊ स्थित मंत्रेज बच्चों की पढ़ाई का स्वप्न देखा था जो पूरा न हो सका । दो वर्षों से स्कूल बन्द था । फादर जेकिन्स जवान गौर जोशीले थे । उन्होंने चचें से उक्त स्कूल को अपने ढग से चलाने की आज्ञा भांगी जो मिल गयी । किन्तु फीस के संबंध में बड़े मिशनरी पदाधिकारियों का यही निश्चित मत था कि फीस पुरानी ही रक्सी जायेगी । चर्च के बड़े-बड़े प्रतिबन्धो के वावजूद चर्च से कुछ दूर अपने बंगले पर फादर जेकिन्स ने जब पांच रुपये वाले तीन भारतीय छात्र पटा लिये तब मिशन ने भी पच्चीस रुपये फीस लेकर आठ छात्र लाद दिये । अब यह दो छात्र भौर भा गये । स्कूल चल निकला । ठाकुर रामजियादन सिंह जमींदार की बग्घी पर दोनो आते थे । करवट : 15




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