जैन सिद्धांत प्रवेश रतनमाला भाग - Vii | Jain Siddhant Pravesh Ratnamala Vol. - Vii
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
174
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्री दिगम्बर जैन - Shri Digambar Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(१६ )
एक अथक श्रम करता लेकिन भूखा सोता रात है,
और मौतियो के करण्ड मे होता कही प्रभात है।
विधि का यहीं विधान न इसमें श्रम का नाम निशान भी ॥ १४॥।
यहीं दृष्टि. विषर्यास है. यह ही पहली भूल हैं,
भवतरु की सभूति यृद्धि फल मयता का यह सुल है।
जब तक पौरुष सोता रहता तबतक यह नादान है.
अरे ! तभो तक ही तो कहते कम महा बलवान है ।
ज्ञान भर चारित्र सभी इसके असाव मे. दीन हैं,
विधवा के स्छगार तृल्य वे सुन्दरता श्री हीन है।
भरे ! अगोचर महिम मुक्ति के मगलमय सोपान की ॥ १६).
जिसे भात्मा फी जिज्ञासा जाग्रत हो, पिपासा लगे; बहार
का सब ढु खसय भासित हो, उसे यदि दह अन्तर में
खोज फरे तो, आत्मा की महिमा आये । जिसे संसार में
तन्मयता है, उसे मात्मा की महिमा नहीं आती । जिसे
बाह्य से-बिभाव मे-दुख लगे, वह विचार करता है
कियहुतो सब दुःख रूप है; मैं तो अन्तर मे ऐसा
कोई अनुपम तत्त्व हू कि जिस से परिपूर्ण सुख है । जिसे
जिज्ञासा जागत हो वह अपने आत्मा का गुण-वेभव
देखने का प्रयत्न करता है और तब उसे उसकी महिमा
आती है । 'आत्मा का वैभव कसा है? उसे कौन
बतलाये ? यह कंधे प्रगट हो ? ऐसी जिसे जिज्ञासा हो
वह खोज करता है ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...