श्रावकाचार प्रथम भाग | Shravkachar Pratham Bhaag

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Shravkachar Pratham Bhaag  by श्री दिगम्बर जैन - Shri Digambar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रावकाचार। {९ उछ हित न्‌ हो सफे-प्रोपकार न हो सके तबतक सेरी जीव विना प्रयोजन उसे क्या जगे -कयों उसकी. चाहने १ घत एव रस परमात्माक्न रक्षण वीतराग तज्ञ मीर दितोपदेशी दै । निकल परमात्मा शरीर रहित नित्य सविनाशी सुखके भोक्ता अनेतगुण मेडित परम पवित्र, निःक्रिय लोकालोकके ज्ञाता अनंत श्रमा युक्त है। शरीर रहित, कममलरद्वित, लत्यंत विशुद्ध सुकतात्मा नग- तका क्त हत नदीं हो सक्ता! योर कती हतीकि कारण ईश्की कस्पना भी बाग्माल है, क्योंकि निल्य, निरंञन, शरीर रहित, व्याप्त (कर्ताको माननेवाले इश्वरको व्याप्त मानते हैं) से शक्ति- मान और जनादिनिघन ईश्वर क्रिया रहित दोनेसे कि भकार जगतको बना तक्ता हे ? व्याप्त पदार्थमे हन चकन रूप क्रिया किस प्रकार हो सक्ती दे ! शरीर विना मूर्नीक पदार्थोक्नों कि्त प्रकार बना सक्ता दै ! वर्योकि ईश्वर स्वयं अमूर्नीर है । अपूर्ती- कसे मूर्तीक वस्तु फेसे उत्पन् से सक्ती ६ १ निल वस्म क्रिया ऊँसे होठी है ! निल साङ्गान क्रिया क्यो नदीं ईश्वर 'नित्य होकर यदि क्रिया करता हतो भ्रश्य कार्ते कड क्रिप्ा कहाँ चली जाती है १ वह नित्य ही नहीं दोगा। अनादि वरवे सादि काये कैद हए । हैदर णनादि दै तो वह नगतके विना कैसे कहां रहा ? क्रियाये इच्छासे होती हैं.। षके च्छा होनेसे वह दोषी ठहरेगा । ईशंवरको किपते बनाया | सर्वे शक्तिमान होनेसे उप्तके बताये हुए स पदार्थ सुद एके হীন वदष्टिये ! पि! करोर इषो, कोई तेपे, गोर হতো, कोट षुवो




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