जैन सिद्धांत प्रवेश रतनमाला भाग - Vii | Jain Siddhant Pravesh Ratnamala Vol. - Vii

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Jain Siddhant Pravesh Ratnamala Vol. - Vii by श्री दिगम्बर जैन - Shri Digambar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१६ ) एक अथक श्रम करता लेकिन भूखा सोता रात है, और मौतियो के करण्ड मे होता कही प्रभात है। विधि का यहीं विधान न इसमें श्रम का नाम निशान भी ॥ १४॥। यहीं दृष्टि. विषर्यास है. यह ही पहली भूल हैं, भवतरु की सभूति यृद्धि फल मयता का यह सुल है। जब तक पौरुष सोता रहता तबतक यह नादान है. अरे ! तभो तक ही तो कहते कम महा बलवान है । ज्ञान भर चारित्र सभी इसके असाव मे. दीन हैं, विधवा के स्छगार तृल्य वे सुन्दरता श्री हीन है। भरे ! अगोचर महिम मुक्ति के मगलमय सोपान की ॥ १६). जिसे भात्मा फी जिज्ञासा जाग्रत हो, पिपासा लगे; बहार का सब ढु खसय भासित हो, उसे यदि दह अन्तर में खोज फरे तो, आत्मा की महिमा आये । जिसे संसार में तन्मयता है, उसे मात्मा की महिमा नहीं आती । जिसे बाह्य से-बिभाव मे-दुख लगे, वह विचार करता है कियहुतो सब दुःख रूप है; मैं तो अन्तर मे ऐसा कोई अनुपम तत्त्व हू कि जिस से परिपूर्ण सुख है । जिसे जिज्ञासा जागत हो वह अपने आत्मा का गुण-वेभव देखने का प्रयत्न करता है और तब उसे उसकी महिमा आती है । 'आत्मा का वैभव कसा है? उसे कौन बतलाये ? यह कंधे प्रगट हो ? ऐसी जिसे जिज्ञासा हो वह खोज करता है ।




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