प्रेमधन सर्वस्व भाग 1 | Premdhan Sarvasya Bhaag 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
52 MB
कुल पष्ठ :
662
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६ हर ,)
छाई जिन पर कुटिल कटीली बेलि अझनेकन ।
गोलडु गोली भेदि न जाहि जाहि बाहर सन ॥।
दूसरे स्थान पर कबि 'मकतबखाने' का बड़ा ही चित्ताकर्षक
बसु न करता है--
“पढ़त रहें बचपन में हम जहें निज भाइन सँग |
झजहूँ आराय सुधि जाकी पुनि मन रंगत सोई रंग !।
रहे मोलबी साहेब जहेँ के झतिसय सज्जन ॥
बूढ़े सत्तर बत्सर के परे तऊ पयपुष्ट तन ॥|
इसी प्रकार 'अझलौकिक लीला” काव्य में भक्ति रस में लीन हो
कर कब ने कृष्णुचरित का वर न बड़े मनोहर ब्योरों के साथ
किया है ।
चौधरी साहब स्थान स्थान पर झचनुप्ास अर वर्खमेंत्री
गद्य तक में चाहते थे । एक बार आनन्द-कादस्बिनी के लिए मैंने
भारत बसंत नाम का एक पथयबद्ध दृश्य काव्य लिखा, उसमें भारत
के प्रति बसंत का यह वाक्य उपालम्भ के रूप में था--
बहु दिन नहि बीते सामने सोइ झायो |
गरम गजनबी ते गवं सारो गिरायो ॥
दूसरी पंक्ति उन्हें पसन्द तो बदुत आई पर उन्होंन उदासी के
साथ कहा--''हिन्दू होकर आप से यह लिखा केसे गया” ?
वे कलम की कारीगरी के कायल थे | जिस काव्य में कोई
कारोगरी न हो वह उन्हें फीका लगता था । एक दिन उन्होंने पक
छोटी सी कविता झपने सामने बनाने को कहा; शायद देशदशा
पर । मैं नीचे की यह पंक्ति लिख कर कुछ सोचने लगा--
विरूल भारत, दीन आरत, स्वेद गारत गात ।”
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