प्रेमघन - सर्वस्व भाग - 1 | Premaghan - Sarvasv Bhag - 1

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Premaghan - Sarvasv Bhag - 1  by बदरी नारायण उपाध्याय - Badari Narayan Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ है ) छाई जिन पर कुटिल कटीली बेलि झनेकन । गोल गोली भेदि न जाहि जाहि वाहर सन ॥ दूसरे स्थान पर कवि 'मकतवखाने” का वड़ा ही चित्ताकर्पक चर न करता है-- “'पढ़त रहे बचपन में हम जहूँ निज भाइन सँग । अझजहुँ झाय सुधि जाकी पुनि मन रँगत सोई रँग ॥ रहे सोलबी साहेब जहूँँ के झ्तिसय सजन । बृढ़े सत्तर बत्सर के पे तऊ पुप्॒ तन ॥| इसी प्रकार “अलौकिक लीला” काव्य में भक्ति रख में लीन हो कर कवि ने छृप्सुचरित का वर्णन वड़े मनोहर ब्योरों के साथ किया है । चौधरी साहव स्थान स्थान पर शझ्नुप्रास और व्ुमेत्री गद्य तक में चाहते थे । एक वार झानन्द-कादस्विनी के लिए मैंने सारत बसंत नाम का एक पदथवद्ध दृश्य काव्य लिखा, उसमें भारत के प्रति बसंत का यह वाक्य उपालस्भ के रूप में था-- बहु दिन नई बीते सामने सोइ झायो । गरजि. गजनबी ते गवं सारो गिरायो ॥ दूसरी पंक्ति उन्हें पसन्द तो बहुत झाई पर उन्होंने उदासी के साथ कहा--“हिन्दू होकर झाप से यह लिखा कैसे गया” ? बे कलम की कारीगरी के कायल थे । जिस काव्य में कोई कारीगरी न हो चह्द उन्हें पीका लगता था । एक दिन उन्होंने एक छोटी सी कविता झपने सासने बनाने को कहा; शायद देशदशा वर | मैं नीचे की यदद पंक्ति लिख कर कुछ सोचने लगा-- पविकल भारत, दीन शारत, स्वेद गारत गात ।”




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