प्रेमघन - सर्वस्व भाग - 1 | Premaghan - Sarvasv Bhag - 1

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Premaghan - Sarvasv Bhag - 1  by बदरी नारायण उपाध्याय - Badari Narayan Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २१ ) छाई जिन पर कुटि् कटीली बेलि झ्नेकन । गोलट गोली भेदि न जादि जाहि बाहर सन ॥ दूसरे स्थान पर कवि 'मकतबखाने” का बड़ा ही चित्ताक्पक चरण न करता है-- “पढ़त रहे बचपन में हम नहें निज भाइन सँग ! भनहूँ बाय सुधि जाकी पुनि मन रेंगत सोई रंग ॥। रहे सोलबी साहेब जहूँ के शझ्तिसय सज्जन । बुद़े सत्तर बत्सर के पे तऊ पुष्ट तन ॥ इसी प्रकार “झलौकिक लीला' काव्य में भक्ति रस में लीन दो कर कवि ने कृप्शचरिव का बण न वड़े मनोद्दर व्योरों के साथ किया है । स्रोधरी साहब स्थान स्थान पर शझ्नुप्रास श्र बर्यमेत्री गद्य तक में चाहते थे । पक बार श्ानल्‍्द-कादस्बिनी के लिए मैंने सारत बसंत नाम का एक पयबद्ध दृश्य काव्य लिखा, उसमें भारत के प्रति बसंत का यह वाक्य उपालम्भ के रूप में था-- बहु दिन बहि बीते सामने सोइ झायो । गरलि गजनबी ते गवं सारो गिरायो ॥ दूसरी पंक्ति उन्हें पसन्द तो बहुत श्राई पर उन्होंने उदासी के साथ कहा--“हिन्दू होकर झाप से यह लिखा कैसे गया” ? वे कलम की कारीगरी के कायल थे । जिस काव्य में कोई कारीगरी न हो वह उन्हें फीका लगता था । एक दिन उन्होंने पक छोटी सी कविता झापने सामने बनाने को कहा, शायद देशदशा पर । मैं नीचे की यद्द पंक्ति लिख कर कुछ सोचने लग-- “विकल सारत, दीन आरत, स्वेद गारत गात ।”




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