प्रेमधन सर्वस्व भाग 1 | Premdhan Sarvasya Bhaag 1

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Premdhan Sarvasya Bhaag 1  by बदरी नारायण उपाध्याय - Badari Narayan Upadhyay

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about बदरी नारायण उपाध्याय - Badari Narayan Upadhyay

Add Infomation AboutBadari Narayan Upadhyay

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
६ हर ,) छाई जिन पर कुटिल कटीली बेलि अझनेकन । गोलडु गोली भेदि न जाहि जाहि बाहर सन ॥। दूसरे स्थान पर कबि 'मकतबखाने' का बड़ा ही चित्ताकर्षक बसु न करता है-- “पढ़त रहें बचपन में हम जहें निज भाइन सँग | झजहूँ आराय सुधि जाकी पुनि मन रंगत सोई रंग !। रहे मोलबी साहेब जहेँ के झतिसय सज्जन ॥ बूढ़े सत्तर बत्सर के परे तऊ पयपुष्ट तन ॥| इसी प्रकार 'अझलौकिक लीला” काव्य में भक्ति रस में लीन हो कर कब ने कृष्णुचरित का वर न बड़े मनोहर ब्योरों के साथ किया है । चौधरी साहब स्थान स्थान पर झचनुप्ास अर वर्खमेंत्री गद्य तक में चाहते थे । एक बार आनन्द-कादस्बिनी के लिए मैंने भारत बसंत नाम का एक पथयबद्ध दृश्य काव्य लिखा, उसमें भारत के प्रति बसंत का यह वाक्य उपालम्भ के रूप में था-- बहु दिन नहि बीते सामने सोइ झायो | गरम गजनबी ते गवं सारो गिरायो ॥ दूसरी पंक्ति उन्हें पसन्द तो बदुत आई पर उन्होंन उदासी के साथ कहा--''हिन्दू होकर आप से यह लिखा केसे गया” ? वे कलम की कारीगरी के कायल थे | जिस काव्य में कोई कारोगरी न हो वह उन्हें फीका लगता था । एक दिन उन्होंने पक छोटी सी कविता झपने सामने बनाने को कहा; शायद देशदशा पर । मैं नीचे की यह पंक्ति लिख कर कुछ सोचने लगा-- विरूल भारत, दीन आरत, स्वेद गारत गात ।”




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now