जीवन का मूल्य | Jivan Ka Muly

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Jivan Ka Muly by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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झअसम्मच कथा श्भृ घारगी श्रथवा पक दिन में नदीं तय हुई । खुवह शाम कई दिन ठगातार भट्टाचार्यजी फो गिरीश के घर से प्रभावती के घर श्रौर मभावती के घर से गिरीश के घर जाना पड़ा । इघर कई दिनों से घरावर गिरीश प्रभावती फे रूप का ध्यान कर घानन्द-सागर में गोते लगाते रहे। उन्हें केवल री ही मिलने की खुशी न थी; किन्तु 'घनवान होने की भी खुशी थी । उनका विश्वास था कि इस विवाह के हो जाने से सच- मुच ही कोई न कोई राजा उन्हें गोद ले तेगा अथवा गवर्नमेणट श्पने गज़ट की श्रागामी संख्या में उन्हें राजा की उपाधि श्रदान करेगी । जिस दिन विवाद पक्का हुआ उस दिन गिरीश फी घुझा के झानन्द की सीमा न रही । सिंरीश को तरह-तरह के श्राशी- चादि देने लगीं । दोनों फन्याश्रों से कददतीं, “तुम्हारी नयी मां श्रायेगी । चह घड़ी सुन्दर होगो। तुम सब को खूब प्यार करेगी । '्रच्छी-शाच्छी चीज़ें खाने को देगी ।'” इत्यादि । बड़ी लड़की फी प्रवस्था नौ घर्ष की थी । छोटी श्रभी ध्वार ही चर्प की थी। दादी के सामने तो वदद दोनों कुछ न घोलीं । दूसरे दिन सप्रेरे पर्कात में दोनों यों थातें करने ठगीं-- चूची ने कह्दा--“दोदी, या छुचमुच हमाली नई मा श्राफर दम लोगों को खूब प्याउ कलेगी १”? पूरी ने कहा-“जो ऐसा ही होता तो भौंखना ही फादे का था। पमल्ी, कहीं सौतेली माँ भी प्यार करती है ?




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