सुर की काव्य - माधुरी | Sur Ki Kavya Madhuri

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Sur Ki Kavya Madhuri by रमाशंकर तिवारी - Ramashankar Tiwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अध्याय 2 सूर का कृतित्व सुरसागर डॉँ० दीनदयालु गुप्त ने सुरदास-रचित कहे जाने वाले ग्रंथों की संख्या 24 बतायो है जिसे पं० जवाहरलाल चतुर्वेदी ने बढ़ाकर 54 कर ही है। इधर कुछ माह पुर्व, चित्रकूट (बाँदा) के किसी अध्यापक ने समाचार-पत्नों में 'सुर-मंजरी नाम से एक और ग्रन्थ की सुचना प्रकाशित करायी थी जिसे मिलाकर सुर-कृत ग्रन्थों की संख्या 55 तक पहुंच जाती है । किन्तु, विद्वानों का सामान्य बहुमत सुरदास द्वारा रचित ग्रन्थ तीन ही मानता है: 'सुरसागर', 'सुरसारावली' और “साहित्यलहरी' । 'सुरसागर' नाम सुरदास के जीवन-काल में ही उनके कीतंन-पदों के समुच्चय को प्राप्त हो चुका था । महाप्रभु वल्लभाचाय॑ सुर को 'सुरसागर' कहा करते थे और संभवत: इसी आधार पर उनकी इस महनीय रचना का नाम भी “सुरसागर' पड़ गया ।“ यद्यपि सुर ने जगह-जगह पर भाग- वतत के अनुसार वर्णन करने की बात कही है, तथापि 'सुरसागर' भागवत का अनुवाद नहीं है, प्रत्युत उस पर ब्रह्मववत्त॑ं, ब्रह्माण्ड, वामन पुराण, गर्गसंहिता इत्यादि का प्रचुर प्रभाव भी परिलक्षित होता है। हम 'सुरसागर' को ही सुर की एकमात्र प्रामाणिक रचना मानते हैं, 'सुरसारावली' तथा “साहित्यलहरी' को नहीं । स्वरूप और सम्पादन की समस्या 'सुरसागर मुलत: कीतंन-काव्य है । सुर अपने रचित पदों को स्वयं गाया करते थे और कहा जाता है कि वे पुराना पद कमी नहीं गाते थे । किंवदन्ती है कि उन्होंने सवा लाख पदों का प्रणयन किया । वार्ता प्रसंग (3) में केवल “सहस्रावधि” पदों की रचना को बात कही गयी है जबकि वार्ता प्रसंग (10) में कहा गया है कि सुरदास ने एक लाख “कीर्तन प्रकट” किये और शेष पच्चीस हजार श्रीगोवर्धननाथजी ने ' 'सुरस्याम'' 1. वार्ता प्रसंग (3) में उल्लेख आया है-- दर और सूरदास कों जब श्री आाचायंजी देखते, तब कहते--जो भावो--सूरसागर, सो ताको आसय यह जो समुद्र में सगरो पदार्थ होत है, तैसे ही सूरदास ने सहस्रावधि पद किये हैं । तामैं ज्ञान-वै राग्य के न्यारे-न्यारे भक्ति भेद अनेक भगवत्‌ अवतार, सो तिन सबन की लीला कौ बरनन कियो है।” सूरदास की वार्ता (सीतल) , प० 27




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