ध्रुवस्वामिनी विचार और विश्लेषण | Dhruvaswamini Vichar Aur Vishleshan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
141
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
श्री धाम सिंह कंदारी और चंद्रा देवी के ज्येष्ठ पुत्र डॉ गोविन्द सिंह कंदारी का जन्म उत्तराखंड के कीर्ति नगर टिहरी गढ़वाल के ग्राम - सरकासैनी, पोस्ट - गन्धियलधार में हुआ |
शुरुआती शिक्षा इन्होने अच्चरीखुंट के प्राथमिक विद्यालय तथा गणनाद इंटर कॉलेज , मसूरी से की |
इलाहबाद (प्रयागराज) से स्नातक कर आगरा विश्वविद्यालय से पी.एच.डी कि उपाधि प्राप्त की |
देशभर में विभिन्न स्थानों पर प्रोफ़ेसर तथा दिल्ली विश्ववद्यालय में प्रवक्ता के रूप में सेवारत |
हिंदी भाषा साहित्य की नाटक, आलोचना , लोक आदि विधाओं में 25 से अधिक पुस्तकें लिखीं |
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्घ
स्ी-वेप-घारण और यत्रु के स्कंघावार में उसकी हत्या करने का उल्लेख है, जिसकी
दाब्दावली “देवीचंद्रगुप्तमू” से पूर्णतः प्रभावित प्रतीत होती हैं 1
उपयुक्त तीनों पुस्तकों में एक ही घटना का उल्लेख उसकी परम्परा की पुष्टि
करता है । सातवीं, दसवीं भौर ग्यारहवीं चताव्दी के ये उल्लेख स््री-वेष में चन्द्रयुप्त
की साहसिकता को जनश्रुति (लीजेंड) चना देते हैं । चायद इसीलिए वाद में भी ततथ्य-
संग्रहकर्ता इतिहासकारों को उक्त घटना की प्रामाणिकता असंदिग्ध प्रतीत हुई । तेरहवीं
दताब्दी के अबुलहसन अली की पुस्तक “मजमू-उत्त-तवारीख' में इन लोककथा की,
गौर 'देवीचन्द्रगुप्तमू' की, अनुकृति ही है । अली साहव ने घटना के सभी पक्षों की
कल्पना विस्तार से की है। नाम बदले होने पर भी कहानी पुरानी ही है : “रव्वाल
(रामगुप्त ) व वरकंमारीस (विक्रमादित्य) दो भाई थे । रव्वाल राजा और वड़ा था ।
एक स्वयंवर में वर्कमारीस ने रानी (श्रुवस्वामिनी ? ) को पाया था, लेकिन रव्वाल ने
उससे वलात् विवाह कर लिया । एक बार रव्दाल के पिना के एक घत्रु ने साक्मण
करके उसे घेर लिया एवं राजकुमारी व अन्य सरदारों की पुत्रियाँ प्राप्त करना सन्धि
की था में मनवा लिया । तव वर्कंमारीस ने रव्वाल की अनुमति से रत्नी-वेप में सरदारों
ने बकंमारीस के विरुद्ध रव्वाल को भड़काया । घर्कमारीस पागल बनकर घूमने लगा ।
एक संध्या को अवसर पाकर एकांत में वठे रव्वाल को उसी के छरे से वर्कमारीस ने
मार दिया । वह गन्ना चूसता हुआ वहाँ आया था ओर गन्ना छीलने के लिए उसने छुरा
प्राप्त किया था । इस प्रकार वह राज्य तथा रानी का स्वामी हुआ ।”'
यहां तक तो साहित्यिक सामग्री का उल्लेख हुआ । अब इससे सम्बन्धित ऐति-
हासिक तथ्य देखें । समुद्रगुप्त, चन्द्रयुप्त व उसके वाद के एक अन्य राजा के थिला-
लेखों, सिक्कों और दान-पत्रों की चर्चा इस संदर्भ में की जा सकती है ।
समुद्रगुप्त के समय एक प्रया थी --“कन्योपायनदान', जिसके अनुसार विजित
राजा विजेता को स्थायी सन्धघि के लिए अपनी कन्या (या वहन) उपहारस्वरूप देता
था । इस प्रकार पारिवारिक सम्बन्ध जोइकर भावी वैमनस्य का अन्त कर दिया जाता
था । समुद्रगुप्त का प्रयाग का स्तम्भ-लेख इसका वर्णन करता है कि ''देवपुत्र-जाहिणाहानु-
दाहि, थक, मुरुप्ड तथा संहल आदि राज्यों ने आत्मनिवेदन, कन्याओं की मेंद व
समुद्रगुप्त की मुद्रा का अधिकार मानकर उसवी अधीनता स्वीकार की 1” *
१, स्त्रीवेपनिद्भ,तः चन्द्रगुप्त: यात्रो: स्कंघावारमलिपुर दाकपतिवघावागमत् । यथादेवी
चन्द्रगुप्ते बकपतिना पर कृच्छमापादितं दामगुप्तस्कथधावाराम् अनुजि्रूुसुपायान्तर-
5गोचरे प्रतिक्रारे निधि वेतालसाथनम् । अध्यवस्यन् कुमारचन्द्रयुप्त आत्रेयेण
विदरूपकेन उवतः: ।
टॉ० वासुदेव उपाध्याय, प्राचीन भारतीय अभिलेसों का अध्ययन, पृष्ठ ४८
(परिधिप्ट) ।
न
डे
User Reviews
No Reviews | Add Yours...