रंग मंच कला और दृष्टि | Rangmanch Kala Aur Dristi

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Rangmanch Kala Aur Dristi by डॉ गोविन्द चातक - dr. Govind Chatak

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श्री धाम सिंह कंदारी और चंद्रा देवी के ज्येष्ठ पुत्र डॉ गोविन्द सिंह कंदारी का जन्म उत्तराखंड के कीर्ति नगर टिहरी गढ़वाल के ग्राम - सरकासैनी, पोस्ट - गन्धियलधार में हुआ |
शुरुआती शिक्षा इन्होने अच्चरीखुंट के प्राथमिक विद्यालय तथा गणनाद इंटर कॉलेज , मसूरी से की |
इलाहबाद (प्रयागराज) से स्नातक कर आगरा विश्वविद्यालय से पी.एच.डी कि उपाधि प्राप्त की |
देशभर में विभिन्न स्थानों पर प्रोफ़ेसर तथा दिल्ली विश्ववद्यालय में प्रवक्ता के रूप में सेवारत |
हिंदी भाषा साहित्य की नाटक, आलोचना , लोक आदि विधाओं में 25 से अधिक पुस्तकें लिखीं |

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सचाटक शोर रंगमंच : सम्बन्ध सूत्र [) १५ अक्षम है; दूसरी घोर इस बात को भी नहीं भुलाना चाहिए कि रंगमंच नाठक को झतिरिवत प्रायाम प्रदान कर उसे कई गुना जीवंतता प्रदान करता है । यहाँ तक कि मामूली से संवाद को, जिसका साहित्य मे कोई स्थान निर्धारित करना सम्भव मे ही, मंच पर बाणी, गति, भंगिमा प्रदान कर एक भ्रद्भुत सर्जनात्मक स्वरूप दिया जा सकता हैं। यही कारण है कि ठीक त्तरह से न लिखे हुए नाटक को भी रंगमंचोय उपादानों से सफलता के सोपानों तक उठाया जा सकता है । रंगमंच की सीमा के साथ यह साम्थ्यं भी जुड़ी हुई है! नाटक को पढ़ने में कोई हानि नहीं । किन्तु इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि पढ़ना श्ौर देखना दो विरोधी धर्म नहीं हैं। जब तक हम यह मानते हैं कि ताटक नाटक है, तब तक उसे साहित्य की भांति पढ लेने में कोई अहित नहीं; किन्तु अध्ययन पूरक मात्र है शोर उसे रगमूलक बनाना जरूरी है ! रंगमंच की स्वस्थ परम्परा के लिए भी नाटक पढे जाएँ, यह बुरा नहीं, किन्तु पाठक को भी जागरूक होकर मचीय तत्त्वों को श्रांकना सीखना चाहिए। बहुत कुछ ऐसा होता है जो नाटक में श्रगनलिखा-अनकहा होता है प्रोर उसे रंगकर्मी छपी पंक्तियों के बीच से उमारते हैं। रगमंच के उस झायाम को ध्यान में रसे बिना नाटक पढ़ भी लिया जाय तो उससे बहुत लाभ नहीं । जी लोग नाटक की मात्र पढने में विश्वास रखते हैं था वे जो नाटक के प्रेक्षक माश्न बनकर रहना पसंद करते है, नाद्य को विमाजित कर देते है । इसका परिणाम यह होताहै करि एकांगी श्राधार परनाटककार झोर रंगकर्मी, पाठक श्रौर प्रेक्षक को लेकर दो दल बन जाते हैं । यहाँ तक कि समीक्षकों के दो दल हो गये हैं । समीक्षकी का एक दल है जो केवल नाटक के पाठ की ही समीक्षा करता है और दुसरा केवल नाद्य प्रदर्शनों के 'रिव्यू” को ही नाटक की सही समीक्षा मानता है । इन दौनों कोटियों के समीक्षक पाठक और प्रेक्षक के ही प्रतिरूप हैं। परठक के लिए विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, सम्बाद, देशकाल, उद दय भ्रादि के खानों-दराज़ों चाली वर्गोक्त समीक्षा के ढेर लगाते जाते हैं; रंग-तत्वों की व्याख्या से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं हीता । सारी नाद्य-समीक्षा एक ऐसे साँचे में ढल गधी कि उसे पढ़कर नाटक के साहित्यिक पक्ष का कही आराम नहीं मिलता श्रोर न इस बात का कि रंगतत्व मी साहित्यिक तत्वीं की भाँति ही उसके अर्थ का विस्तार करते हैं। दूसरी और रंगर्मचीय प्रदर्शनों को लेकर पत्र-पत्निकाओों या पुस्तको में जो समीक्षाएँ लिखी जाती हैं वे बहुत साधारण होती हैं--एक प्रकार से सरलीकरण की प्रवृत्ति से ग्रस्त श्र साधारण विद्ेषणों से युवत | रंग-समीक्षक नाटक के पाठ्य रूप का विशेषज्ञ हुए बिना ही झाज इतनी ही क्षमता रखता है कि प्रेक्षागृह के एक कोने में मुफ्त में बैठने के लिए जगह के साथ किसी दैनिक पत्र का कॉलम उसे




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