ध्रुवस्वामिनी विचार और विश्लेषण | Dhruvaswamini Vichar Aur Vishleshan

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Dhruvaswamini Vichar Aur Vishleshan by डॉ गोविन्द चातक - dr. Govind Chatak

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श्री धाम सिंह कंदारी और चंद्रा देवी के ज्येष्ठ पुत्र डॉ गोविन्द सिंह कंदारी का जन्म उत्तराखंड के कीर्ति नगर टिहरी गढ़वाल के ग्राम - सरकासैनी, पोस्ट - गन्धियलधार में हुआ |
शुरुआती शिक्षा इन्होने अच्चरीखुंट के प्राथमिक विद्यालय तथा गणनाद इंटर कॉलेज , मसूरी से की |
इलाहबाद (प्रयागराज) से स्नातक कर आगरा विश्वविद्यालय से पी.एच.डी कि उपाधि प्राप्त की |
देशभर में विभिन्न स्थानों पर प्रोफ़ेसर तथा दिल्ली विश्ववद्यालय में प्रवक्ता के रूप में सेवारत |
हिंदी भाषा साहित्य की नाटक, आलोचना , लोक आदि विधाओं में 25 से अधिक पुस्तकें लिखीं |

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्घ स्ी-वेप-घारण और यत्रु के स्कंघावार में उसकी हत्या करने का उल्लेख है, जिसकी दाब्दावली “देवीचंद्रगुप्तमू” से पूर्णतः प्रभावित प्रतीत होती हैं 1 उपयुक्त तीनों पुस्तकों में एक ही घटना का उल्लेख उसकी परम्परा की पुष्टि करता है । सातवीं, दसवीं भौर ग्यारहवीं चताव्दी के ये उल्लेख स््री-वेष में चन्द्रयुप्त की साहसिकता को जनश्रुति (लीजेंड) चना देते हैं । चायद इसीलिए वाद में भी ततथ्य- संग्रहकर्ता इतिहासकारों को उक्त घटना की प्रामाणिकता असंदिग्ध प्रतीत हुई । तेरहवीं दताब्दी के अबुलहसन अली की पुस्तक “मजमू-उत्त-तवारीख' में इन लोककथा की, गौर 'देवीचन्द्रगुप्तमू' की, अनुकृति ही है । अली साहव ने घटना के सभी पक्षों की कल्पना विस्तार से की है। नाम बदले होने पर भी कहानी पुरानी ही है : “रव्वाल (रामगुप्त ) व वरकंमारीस (विक्रमादित्य) दो भाई थे । रव्वाल राजा और वड़ा था । एक स्वयंवर में वर्कमारीस ने रानी (श्रुवस्वामिनी ? ) को पाया था, लेकिन रव्वाल ने उससे वलात्‌ विवाह कर लिया । एक बार रव्दाल के पिना के एक घत्रु ने साक्मण करके उसे घेर लिया एवं राजकुमारी व अन्य सरदारों की पुत्रियाँ प्राप्त करना सन्धि की था में मनवा लिया । तव वर्कंमारीस ने रव्वाल की अनुमति से रत्नी-वेप में सरदारों ने बकंमारीस के विरुद्ध रव्वाल को भड़काया । घर्कमारीस पागल बनकर घूमने लगा । एक संध्या को अवसर पाकर एकांत में वठे रव्वाल को उसी के छरे से वर्कमारीस ने मार दिया । वह गन्ना चूसता हुआ वहाँ आया था ओर गन्ना छीलने के लिए उसने छुरा प्राप्त किया था । इस प्रकार वह राज्य तथा रानी का स्वामी हुआ ।”' यहां तक तो साहित्यिक सामग्री का उल्लेख हुआ । अब इससे सम्बन्धित ऐति- हासिक तथ्य देखें । समुद्रगुप्त, चन्द्रयुप्त व उसके वाद के एक अन्य राजा के थिला- लेखों, सिक्कों और दान-पत्रों की चर्चा इस संदर्भ में की जा सकती है । समुद्रगुप्त के समय एक प्रया थी --“कन्योपायनदान', जिसके अनुसार विजित राजा विजेता को स्थायी सन्धघि के लिए अपनी कन्या (या वहन) उपहारस्वरूप देता था । इस प्रकार पारिवारिक सम्बन्ध जोइकर भावी वैमनस्य का अन्त कर दिया जाता था । समुद्रगुप्त का प्रयाग का स्तम्भ-लेख इसका वर्णन करता है कि ''देवपुत्र-जाहिणाहानु- दाहि, थक, मुरुप्ड तथा संहल आदि राज्यों ने आत्मनिवेदन, कन्याओं की मेंद व समुद्रगुप्त की मुद्रा का अधिकार मानकर उसवी अधीनता स्वीकार की 1” * १, स्त्रीवेपनिद्भ,तः चन्द्रगुप्त: यात्रो: स्कंघावारमलिपुर दाकपतिवघावागमत्‌ । यथादेवी चन्द्रगुप्ते बकपतिना पर कृच्छमापादितं दामगुप्तस्कथधावाराम्‌ अनुजि्रूुसुपायान्तर- 5गोचरे प्रतिक्रारे निधि वेतालसाथनम्‌ । अध्यवस्यन्‌ कुमारचन्द्रयुप्त आत्रेयेण विदरूपकेन उवतः: । टॉ० वासुदेव उपाध्याय, प्राचीन भारतीय अभिलेसों का अध्ययन, पृष्ठ ४८ (परिधिप्ट) । न डे




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