कुमारपाल चरित्रसंग्रह | Kumarapal Charitrasangrah

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Kumarapal Charitrasangrah  by आचार्य जिनविजय मुनि - Achary Jinvijay Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ध्े किश्ित्‌ प्रास्ताविक (३) कुमारपालप्रयोघ - प्रबन्ध जैसा कि ऊपर वर्णन दिया गया है इस संग्रहके तीसरे प्रन्थका नाम 'कुमारपालप्रबोध - प्रबन्ध है । यह नाम हमने प्रन्थकी प्रांभिक कण्डिकाके उछेख परसे अक्कित किया है । उसमें लिखा है. कि- “श्रीकुमारपाठभूपालस्थ प्रारम्यतेडय॑ प्रबोधप्रबन्धः ।' इस उछलेखके सिवा प्रन्थमें और किसी जगह अथवा अन्तिम पुष्पिका लेखमें भी इसका खास नाम लिखा हुआ हमें प्राप्त नहीं हुआ । प्रूनामें उपलब्ध एक त्रुटित प्रतिमें प्रबोध इस शब्दकी जगह प््रतिबोध' ऐसा पाठ मी मिला है इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि इसका नाम 'प्रतिबोध प्रबन्ध” भी दो सकता है और शायद इसी नामकों लक्ष्य कर उक्त दूसरे नंबरके चरितके कती सोमतिलकसूरिने यहद लिखा है कि इसका विस्तार 'कुमारपालप्रतित्रोध' शाख्रसे जानना चाहिए । दोनों शब्दोंका अर्थ प्रायः एक ही है, इससे नाममें कोई बिशेष मेद नहीं पड़ता । इस प्रन्यका मुद॒ण करते समय हमें प्रथम एक ही प्रति प्राप्त हुई थी जो पाटणके भण्डार की थी । इस प्रतिके अन्तमें जो 'प्रन्थयलेखनप्रदास्ति' दी गई है और जिसको हमने इसके साथ मुद्रित किया है ( देखो, ट० ११२ ) उससे ज्ञात होता है कि वि. सं. १४६४ में, देवलपाटक ( काठियाबाडके देलवाडा ) में पंडित दयावईन नामके यतिवरके आदेशसे, श्रावक लोगोंने अपने गच्छके अनुयायियोंके पढनेके लिये इस चरितकी प्रतिलिपि करवाई थी । पाटणकी उक्त प्रति कुछ कुछ अथुद्ध थी इस लिये इसका संशोधन करनेमें हमें कुछ कठिनाई ही रही, तो भी यथामति पाठ्युद्धि करनेका हमने पूरा प्रयत्न किया । ग्रन्थका पूरा मुद्रण हो चुकने बाद, हमें बीकानेरसे साहित्यप्रिय श्रावक्न्धु श्रीयुत अगरचन्द्रजी नाइटाकी तरफसे इस प्रन्थकी एक और प्रति मिली जो वि० सं० १६५६ की लिखी हुई है । उससे इसका मिलान करने पर हमें इन दोनोंमें परस्पर कहीं कहीं पाठभेद उपलब्ध हुए. जिनमें छुछ तो मात्र शाब्दिक परिवर्तन खरूपके हैं और कुछ पंक्तियोकि और पोंकि न्यूनाधिकत्व बतछाने वाले हैं । इनमेंसे जो पाठमेद कुछ खास विशेषत्व रखते हैं उनको हमने इसके साथ परिशिष्टके रूपमें दे दिये हैं । सबसे अधिक विशेषतावाला पाठमेद है वह्द प्रारंभके, मंगलाचरणवाले कोकों ही का है । हमारे मुद्रित प्रन्थमें मंगलाचरणके जो ४ पद्य मिलते हैं उनसे सर्वधा भिन्न प्रकारके ४ पथ्य इस बीकानेरवाली प्रतिमें प्राप्त होते हैं । ( देखो परिश्चिप्ट & ) । इसका कारण यह हो सकता है कि इस प्रन्थके संकलन कतोने पहले जो एक आदरी तैयार किया होगा उसकी प्रतिलिपिवाठी ये पाटण और प्रूनावाछी प्रतियां होनी चाहियें । उसके बाद संकलन कर्ताने प्रन्थमें जो कुछ थोडा बहुत पीछेसे संशोधन - परिवर्तन किया होगा उस आदर्शकी प्रतिलि- पिवाली परंपराकी यह बीकानेरवाली प्रति होनी चाहिये । क्यों कि इस प्रतिके पाठ, हमारी मुद्रित प्रतिके पाठसे, शब्दसन्दभ और बाक्यरचनाकी इष्टसि कुछ विशेष परिमार्जित माद्म पढ़ते हैं । ऐसे संकलनात्मक प्रन्थोंकी प्रतियोंमें इस तरहके विशेष पाठमेद, इस प्रकार किये गए संशोधन - परिवर्तनके कारण, प्रायः उपलब्ध होते रहते हैं । इससे इसमें कोई खास आश्चर्यकी बात नहीं है । बादमें हमें प्रनामें भी इस प्रन्थकी एक और तीसरी प्रति प्राप्त हुई जो भाण्डारकर इन्स्टीट्यूटके राजकीय ग्रन्थ संप्रद में रक्षित है । यह प्रति नुटित है | प्रारंभके १० पत्र बिल्कुठ ही नहीं है और बीचमेंके भी कुछ पत्र छुप्त हैं पर भन्तका पत्र विद्यमान है । यह प्रति वि. सं. १४८२ की लिखी हुई है और भट्टारिक श्री जयतिलकसूरिके शिष्य पं. दयाकेशरगणिको, ओसबंशीय गोठी संग्रामकी पत्नी बाई जासूने लिखा कर समर्पित की है । इसका यह पुष्पिका लेख इस प्रकार है । इति संवत्‌ १७८२ वर्ष फागुण शुदि पंचम्यां गुरी श्रीमति भी तपा पते शीरलागरसूरीश्यराणां गरुछ़े भट्टारिक श्रीजयतिलकसूरीस्व (श्व)राणां दिक्ष (प्य ) पं० दयाकेशरिगणिवराणां ्रीओसबंध (चुं)गार गोठी संग्रामकस्य भार्या बाई जासू नाझ्ना लिपाप्य प्रददो सुदा । चिरं नंदतु ।




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