जैन सिद्धान्त दीपिका | Jain Siddhant Deepika

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Jain Siddhant Deepika  by आचार्य श्री तुलसी - Aacharya Shri Tulasi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १० 3 तत्सम्बन्धी ध्न्यान्य तथूयोंके साथ परिपूर्ण वर्णन है । तृतीय प्रकादामें इन्हीं का समुचित विस्तार है। चतुथे प्रकादामें कमोंके रहस्यका श्रोर उनका जीवोंके साथ सम्बन्ध व जीवों पर उनके प्रभावका वर्णन किया गया है । जैन दर्शनके कमंवादको समझना श्रत्यघिक कठिन हूँ क्योंकि कमंके मौलिक स्वरूप भौर जीवों पर इसके प्रभावके सम्बन्धमें भारतके अन्य दर्शनोंके साथ इसको समानता नहीं के बराबर है और इसकी ( जेन-कमंवा दकी ) अपनी निजी विदोषता है । में इस पुस्तकका अत्यधिक ऋणी हूँ, जिसके पढ़नेसे मेरी समभ परिमाजित हुई और मेरी उलझन दूर हुई, जिसे मेरा बबतकका साहाय्यरहित अध्ययन दूर नही कर सका । पंचम प्रकाश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । मेरी समभमें मुक्ति पर जो कमं-पुदुगलोंके बन्धनसे छुटकारा पानेमें निहित है, इसमें जो प्रचुर प्रकाश डाला गया हूँ, वह अनुपमेय है । इसमें प्रासंगिक रूपसे गुण- स्थानों--आत्म-विकासके क्रमिक स्तरोंका भी विवेचन है, जो पूर्ण रूपसे अमष्टम प्रकाशमें वर्णित हें । जैन-प्राचार-शास्त्रका तो इसमें अत्यल्प स्थान में ही पुर्णे उल्लेख है। षष्ठ और सप्तम प्रकाशमें महाब्रतोंकी विवेचना हूँ। ये ( दोनों प्रकाश ) घ्म॑ और आचारसम्बन्धी सत्‌-असत्‌ कार्यों, जिनका आधुनिक समाज-सुधारकों तथा विद्व-प्रेम-प्रवृत्त व्यक्तियोंके लिए भारी महत्त्व है, के स्पष्टीकरणकी दृष्टिसि अति विलक्षण हें । भ्रष्टम प्रकादमें गुणस्थान, जिनको समभकना एक चिन्तन-परायण भौर अध्यवसायो विद्यार्थीके लिए भी दुरूह है, वर्णित है। इस विषयके परिपुर्ण ज्ञानके लिए जन कर्मवादके बुहत्काय मूल-ग्रन्थोंको पढ़ना अपेक्षित होता हूं। परन्तु यह विषय अत्यधिक जटिल हूं और इन ग्रन्थोंमें इसका वर्णन इतना! विस्तोरणे, लम्बा श्रौर शाखा- प्रशाखामय है कि विद्यार्थीके लिए यह बहुत संभव हूँ कि वह वृक्षोंमें उलझ वनको भूल जाय--शाखा-प्रशाखाश्रोंमें पड़ मूलसे दूर चला जाय । जैन दशनके एक निष्पक्ष विद्यार्थीके नाते में यह मानता हूं कि इस जटिल विषय




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