जैन तर्क भाषा सिंघी जैन ग्रन्थमाला | Jain Tark Bhasha Singhi Jain Granthmala

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Jain Tark Bhasha Singhi Jain Granthmala  by जिन विजय मुनि - Jin Vijay Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ४ 3 विशेष व्यापक होता है । वे कमसे कम न्यायशाख्रके तो मौलिक प्रन्थोंका अवइय परिचय प्राप्त करते हैं; और इसके उपरान्त, जिन कितने एक जैन तक प्रन्थोंका वे अध्ययन-मनन करते हैं, उनमें, थोड़ी बहुत, सब ही दर्शनोंकी चचां और आलोचना की हुई होती है । इससे सभी द्दनोंके मूलभूत सिद्धान्तोंका थोड़ा-बहुत परिचय जैन तकॉभ्यासियोंको जरूर रहा करता है । भारतीय इतिहासके भिन्न-भिन्न युगों और उसके प्रमुख प्रज्ञाशालियोंका जब हम परि- चय करते हैं तब हमें यह एक ऐतिहासिक तथ्य विदित होता है कि जिस तरह जैन विद्वानोंने अन्य दाशैनिक सिद्धान्तोंका अविपयौसभावसे अवलोकन और सत्यता-पूबवेंक समाठोचन किया है, वैसे अन्य विद्वावोनि-खासकर ब्राह्मण बविद्यानोनि-जैन सिद्धान्तोंके विषयमें नहीं किया । उदाहरणके लिये वर्तमान युगके एक असाधारण महापुरुष गिने जाने लायक स्वामी द्यानन्दका उल्लेख किया जा सकता है। स्वामीजीने अपने सत्यार्थप्रकाश नामक सर्वप्रसिद्ध ग्रन्थमें जैन द्शनके मन्तब्योंके विषयमें जो ऊटपटांग और अंड-बंड बातें छिखी हैं, वे यद्यपि विचारशील विद्वानोंकी दृष्टिमें सबंधा नगण्य रही हैं; तथापि उनके जैसे युगपुरुषकी कीर्तिको वे अवश्य कछड्कित करने जैसी हैं. और अक्षम्य कोटिमें आनेवाठछी श्वान्तिकी परिचायक हैं. । इसी तरह हम यदि उस पुरातन कालके ब्रह्मवादी अद्वेताचाये स्वामी दाइुर के ग्रन्थोंका पठन करते हैं तो उनमें भी, स्वामी दयानन्द्के जैसी निन्दयकोटिकी तो नहीं, लेकिन ्लान्तिमूलक और विपयौससूचक जैनमत-मीमांसा अवइय दृष्टिगोचर होती है. । स्वामी शडट्टूरा- पचायेने अपने श्रह्मसूत्रोंके भाष्यमें, अनेकान्तसिद्धान्तका जिन युक्तियों द्वारा खण्डन करनेका प्रयन्न किया है, उन्हें पढ़कर, किसी भी निष्पक्ष विद्वानको कहना पढ़ेगा कि-या तो दाझ्ाराचार्य अनेकान्त सिद्धान्तसे प्रायः अज्ञान थे या उन्होंने ज्ञानपूरवंक इस सिद्धाम्तका विपयोसभावसे परिचय देनेका असाघु प्रयत्न किया है। यही बात प्राय: अन्यान्य शास्त्रकारों के विपयमें भी कही जा सकती है। इस कथनसे हमारा मतढछब सिर्फ इतना ही है कि-ठेठ प्राचीन काछ ही से जैन दाशेनिक मस्तव्योंके विषयमें, जैनेतर दाशेनिकोंका ज्ञान बहुत थोड़ा रहा है और स्याद्वाद या अनेकान्त सिद्धान्तका सम्यगू रहस्य कया है इसके जाननेकी शुद्ध जिज्ञासा बहुत थोड़े विद्वानोंको जागरित हुई है । अस्तु, भूतकाठमें चाहे जैसा हुआ हो; परंतु, अब समय बदला है । वह पुरानी मत- असहिष्णुता धीरे-धीरे बिदा हो रही है । संसारमें ज्ञान और विज्ञानकी बड़ी अदूभुत और बहुत वेगवाछी प्रगति हो रही है । मनुष्य जातिकी जिज्ञासांदृत्तिने आज बिलकुछ नया रूप धारण कर छिया है। एक तरफ़ हजारों विद्वान भूतकाठके अज्ञेय रहस्यों और पदार्थोको सुविज्ञेय करनेमें आकाश-पातांछ एक कर रदे हैं; दूसरी तरफ़ हज़ारों विद्वान ज्ञांत विचारों और सिद्धान्तोंका विशेष व्यापफ अवढछोकन और परीक्षण कर उनकी सय-अरसंत्यता और तात्त्विकताकी मीमांसाके पीछे हाथ धो कर पड़ रदे हैं। भारतीय तस्वज्ञांन जो कलतंक मात्र ब्राह्मणों और श्रमणोंके मठोंकी ही देवोत्तर सम्पत्ति समझी जाती थी वह आंज सारे भूखण्डवासियोंकी सर्वसामान्य सम्पत्ति बन गई है । प्रथ्वीके किसी भी कोनेमें रहने वाढां कोई भी रंग या जातिकां मनुष्य, यदि चाहे तो आंज इस सम्पत्तिका यथेष्ट उपभोग कर




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