पतझड़ | Patajhad

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Patajhad by प्रफुल्लचंद्र ओझा - Prafulchandra Ojha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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फृतभादु घसन्त नें कुता हटाकर अपनी पीठ जाना को दिखलायी ! हाथ से सहलाकर जोनाने देखा, उसकी पीठपर मार के निशान उखड़े हुए हैं। कई जगह फूट भी गया हैं। उसके कुर्ते में जगह- हु खून के दाग पड़ हुए हैं । जाना की आंखें भर आयों । चसन्त के प्रति तीज्न सहाल- भूति से उसका हृदय भर गया । धीरे से उसने पूछा--जनतो लुम कहाँ जाओसे चसन्त ? “जानता नहीं हू । जहाँ प्रारष्घ ले जायगा, वहों जाऊंगा | “फिर कब आभरे ?”' “यह सी चहाों जानता । कह नहीं सकता कि जीवन में फिर कभी भा सकू गा या नहीं; फिर तुमसे सेंट हो सकेगी या नहीं; भाओ, आज तुमसे अन्तिम विदा ले लू जोनो ! फिर क्या डागा, कौन कह सकता हू?” पन्‍्दद चपके वसस्त के हृदय मैं कदपनाओं का तूफान उठ रहा था । जीवन-व्यापी वेदना की अनेक तीखी और कठोर स्सू- लियाँ रद-रहकर उसके हृदय पर आघात कर रही थीं 1 चह पागल-सा हा रहा था 1 घसन्त को बात सोचती हुई जोना गंभीर हो गयी । क्या सचमुच ही बसन्त से यह आखिरी मेंट हैं ? फिर जीवन में 'ऋ




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